वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1556
From जैनकोष
विश्वासानंदयो: स्थानं स्याज्जगदज्ञचेतसाम्।
क्वानंद: क्व च विश्वास: स्वस्मिन्नेवात्मवेदिनाम्।।1556।।
विश्वास कहाँ किया जाय और आनंद कहाँ पाया जाय, ऐसी दो जिज्ञासायें और दो गवेशणायें जीवों के अंदर रहा करती हैं। इसके उत्तर में अज्ञानीजन कहते हैं कि यह जगत, यह वैभव विषयसाधन यही तो विश्वास के योग्य है, यही तो आनंद का साधन है।जिसका चित्त आनंद से वासित है, पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का भान नहीं है ऐसे प्राणियों को यह जगत विश्वास और आनंद का स्थान मालूम होता है। जो लोग घर में संपन्न हैं, संतान से संपन्न हैं, लड़ाई झगड़े भी घर में नहीं हो रहे हैं और कुछ सत्य का भान भी नहीं किया है ऐसे पुरुष अब भी कहते हैं― सबको विदित है। वे मानते हैं कि यह मेरी घर गृहस्थी, यह मेरा परिवार, यह मेरा समागम, यह तो मेरा सब कुछ है, ऐसा विश्वास किए हुए हैं। और आनंद यही तो है, अन्यत्र कहाँहै। ऐसी बुद्धि बहिरात्मा जनों की है। किंतु जिन्होंने अपने आपके आत्मतत्त्व को जानाहै, समझा है― यह मैं आत्मा अपने गुण पर्याय में तन्मय हूँ, अन्य पदार्थों से अन्यत्र जुदा हूँ। पर से विविक्त अपने आपके एकत्वरूप निजजीवसत्व को जिन्होंने जानाहै और ऐसे ज्ञानमय आत्मतत्त्व का अनुभव करके जिन्होंने आत्मा का विलक्षण आनंद प्राप्त किया है ऐसे तत्त्ववेदी पुरुष कह रहे हैं कि इस जगत में कहाँतो आनंद है और कौनसी जगह विश्वास के योग्य है। आनंद अपने आपमें है। और यह आत्मतत्त्व विश्वास के योग्य है। ये अज्ञानी पुरुष खूब भटके, जगह-जगह विश्वास करते फिरे। सब जगह से इसे कोरा उत्तर मिलता रहा। फुटबाल की तरह से यहाँ वहाँ डोलता रहा। अनादिकाल से इस जीव का यही हाल हो रहा है, पर हाय रे व्यामोही पुरुष ! यह अज्ञान परिणाम में इतना दु:खी हुआ अब तक जगह-जगह ठोकरें खाता फिरा, पर बुद्धि में चेत न आया, ज्ञान और वैराग्य में प्रीति न जगी। जो कर्मों के सम्वर का कारण है ऐसे ज्ञानबल के निकट नहीं पहुँच सका। जैसे कोई मोही बूढ़ा अपने घर के नानी पोतों से ठुकता पिटता भी है और ममता भी बसाये रहताहै ऐसी ही हालत इस अज्ञानी पुरुष की है कि सब प्रकार के ज्ञेय पदार्थों में गया पर सभी जगह से कोरा जवाब मिला, सभी जगह से आकुलता ही मिली, फिर भी यह अज्ञानी प्राणी उन ही विषयसाधनों में रुचि कर रहा है। जो अज्ञान बसा हुआ है वह कैसे छूटे? एक कथानक है कि एक बार शक्कर खाने वाली चींटी नमक के बोरों में रहने वाली चींटी के पास गई। पूछा― बहिन तुम यहाँ क्या खाती हो? तो उसने बताया, नमक की डली।....अरी बहिन तुम हमारे साथ चलो, वहाँ तुम्हें बहुत मीठा भोजन मिलेगा। अनेक बार कहने पर भी नमक वाली चींटी को विश्वास न हुआ, आखिर बड़ी प्रेरणा करने पर वह नमक वाली चींटी गई। सोचा कि कहीं वहाँ उपवास न करना पड़े सो एक नमक की डली भी साथ में कलेवा के लिए लेती गई। जब शक्कर चाटा तो शक्कर वाली चींटी ने पूछा― बहिन कैसा स्वाद आया? तो वह बोली कि वही स्वाद आया जो हमारे घर आता है।....अरी बहिन मुख में कुछ लिए तो नहीं है?....हाँ हाँ एक दिन का कलेवा साथ में लायी हूँ, वह मेरे मुख में है।....अरी बहिन तू उस नक की डली को मुख से निकालकर चख, फिर देख कि मीठा स्वाद आता है कि नहीं। उसने नमक की डली निकालकर रख दी और फिर चखा तो मीठा स्वाद मिला। यही हालत है यहाँ के अज्ञानियों की, ये विषय संस्कार विष को छोड़ना नहीं चाहते, अपने उपयोग को बदलना नहीं चाहते, फिर कैसे आनंद के धाम परमात्मतत्त्व की ओरआयें? कष्ट भी सहते जाते हैं और उन ही विषयसाधनों में रमते जाते हैं।
इस जगत में कौनसा स्थान ऐसा है जो विश्वास के योग्य हो? अनेक भव पाये, ऐसे ठाठ-बाट, ऐसा वैभव अनेक बार पाया होगा,बल्कि इससे भी बढ़कर कई गुना विभूति पाया होगा, उनमें कितना ही विश्वास जमाया होगा, पक्की रजिस्ट्री भी कर ली होगी, पर सब कुछ छोडकर जाना पड़ा। यही हाल इस भव का है। कहाँ भूल रहे हैं प्राणी? जैसे अनेक भवों में सब कुछ समागम छोडकर जाना पड़ा ऐसे ही इस भव में भी ये समागम छोडकर जाना होगा। यहाँ कोई भी चीज विश्वास के योग्य नहीं है। विश्वास के योग्य तो अपना आत्मा है जो अपने साथ सदा रहता है। उसकी खबर पड़े, उसी की दृष्टि जगे तो आत्मा को विश्वास का धाम मिल जायगा, और यही आनंद का धाम है। आत्मा में जो आनंदानुभूति होती है वह किन्हीं परपदार्थों से निकलकर कहाँ आ सकती है? त्रिकाल भी किसी दूसरे पदार्थ का परिणमन किसी दूसरे पदार्थ में नहीं आता। आनंद का धाम भी यह आत्मा स्वयं है। जब यह आत्मा अपने आपको मात्र आनंद का धाम ज्ञानस्वरूप निरखता है तो जो स्रोत बहुत देर से ढका हुआ था उसके खुलने पर सारा आनंदरस झरने लगता है। जैसे स्रोत जब किसी चीज से ढका हुआ है तब तक जल का प्रवाह नहीं होता, पर स्रोत का ढक्कन हटा कि जलप्रवाह निकल पड़ता है। इसी प्रकार अपना जो सहज आनंद का धाम है जब तक वह ढका रहता है तब तक उससे आनंदरस नहीं उमडता, पर उसका ढकाव हटा कि आनंद स्रोत झरने लगता है और आत्मीय आनंदरस प्रवाह बड़े वेग से बहने लगता है। अन्यत्र कहीं विश्वास न करें। कहीं अन्यत्र आनंद मानना तो आकुलता का ही कारण है। अपने आपको ज्ञानानंदमात्र अनुभव करना, यही तो स्वानुभव है, यही तो समस्त दु:खों से छुटाने का सच्चा उपाय है। जिस काल में ऐसे विशुद्ध आत्मा का अनुभव जगेउस काल में तो क्लेश है ही नहीं। उपयोग में क्लेश हो तो क्लेश है। हाँ इस उपयोग को छोडकर बाहर में उपयोग देने लगे तो उसे क्लेश होने लगेगा। विश्वास और आनंद का स्थान तो निज आत्मा ही है।