वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1568
From जैनकोष
तनुत्रयावृतो देही ज्योतिर्मयवपु: स्वयम्।
न वेति यावदात्मानं क्व तावद्बंधविच्युति:।।1568।।
यह आत्मा स्वयं तो ज्ञानज्योति प्रकाशमय है और देह सहित यह देही पुरुष तीन शरीरों से ढका हुआ है―आहारक, तेजस और कार्माण। देवगतिऔर नरकगति के जीव तीन शरीरों से ढके हुए हैं, आहारक, तैजस और कार्माण । यह आत्मा जब तक अपने ज्ञानमय आत्मा को नहीं जानता तब तक बंध का अभाव नहीं होता है। शरीर रूप जब तक मानता है यह जीव तब तक उसका बंध नहीं होता। अब अपने देह का अधिक आराम चाहना और आराम की चाह में सधर्मियों से लड़ना यह तो कोई ध्यान की दिशा नहीं है। समय बीत जायगा। दो, चार, छ: दिन का समय है समाप्त हो जायगा और किया हुआ परिणाम, साधर्मीजनों से विद्रोह करना, शरीर का अधिक आराम चाहना, दूसरों से हिंसा रखना, इनसे मेरे को अधिक आराम हो―यह क्या है? यह धर्म के विरुद्ध परिणाम है। और-और भी अपने शरीर का लोभी होना, सामर्थ्य होते हुए भी किसी असमर्थ का उपकार न कर सकना और यह ध्यान में रखना कि हमें अपना तन क्यों झोंकना, यह सब मोह से, अज्ञान से भरा हुआ उपयोग है। यह शरीर तीन शरीरों से ढका हुआ है और यह ज्ञानमय अपने स्वरूप को नहीं जानता। सभी जीव प्राय: करके ऐसे मिलते हैं। सभी अपने-अपने शरीर का पिंडोला लिए हैं, शरीर में आत्मबुद्धि बनीहै, शरीर का आराम चाहते हैं, पर यह पता नहीं कि यह शरीर थोड़े दिनों बाद जला दिया जायगा। जिस शरीर में इतनी ममता बस रही है उस शरीर से बहुत परे भीतर मैं आत्मा क्या हूँ? ज्ञानमय हूँ। उसकी ओरदृष्टि नहीं जा रही है। शरीर-शरीर ही सब कुछ हो रहा हे तो वह शरीर तो नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। जब तकयह जीव शरीर में आसक्त हो रहा हे तब तक आत्मा को नहीं जान सकता। और जब तक आत्मा को नहीं जानसकता तब तक कर्मों के बंध से छूट नहीं सकता।