वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1567
From जैनकोष
चलमप्यचलप्रख्यं जगद्यस्यावभासते।
ज्ञानयोगक्रियाहीनं स एवास्कंदति ध्रुवम्।।1567।।
योगी मुनि तत्त्ववेत्ता की दृष्टि पदार्थों में ध्रुवस्वरूप देखने की होती है, तो जीवों में भी जो ध्रुव एकस्वरूप चैतन्यभाव है उसकी दृष्टि होती है, इस दृष्टि में यह चलरूप जगत भी अचल सा मालूम देता है, और चलपना यों नजर आता है कि रागद्वेष कर रहे हैं। कोई वास्तविकता नहीं है, चीज तो समस्त अचल हैं। जिस समस्त योग को यह चल जगत अचल के समान दिखता है वह मुनि इंद्रियज्ञान से रहित और योग परिस्पंद कर्मों से रहित होने से वह ध्रुव स्थिति को प्राप्त करता है याने निर्वाण को प्राप्त होता है। जब अपना परिणाम स्थित होता है तो समस्त पदार्थ ज्ञान में निश्चल प्रतिभास स्वरूप ही भासते हैं।जब दृष्टि में पदार्थ का परमार्थस्वरूप ध्रुवस्वरूप दृष्टि में होता है तो उसे सब अचल ही नजर आता है। जो चलायवान है, जो परिणमता रहता है वह सब पर्याय है, माया है। पदार्थों में परमार्थ तो एक ध्रुवस्वरूप है।