वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1574
From जैनकोष
आत्मेति वपुषि ज्ञानं कारणं कायसंतते:।
स्वस्मिन् स्वमिति विज्ञानं स्याच्छरीरांतरच्युते:।।1574।।
जीव की दो स्थितियाँ मुख्य हैं―एक तो शरीर सहित स्थिति और शरीररहित स्थिति। जीव दो स्थितियों में मिलेगा―या तो शरीरधारी या शरीर से परे। जो शरीर से परे हैं यह तो हैं सिद्ध भगवान और अरहंत भगवान भी शरीर से परे हैं। शरीर में रहते हुए भी अरहंत भगवान शरीर से निवृत्त ही रहते हैं―क्योंकि शरीर से प्रयोजन है जन्म मरण। सो अब उनका जन्म मरण न होगा। तो शरीररहित में प्रभु आ गएऔर शरीरसहित में ये सब संसारी जीव आ गए। उनमें से दो तरह के प्राणी होते हैं―एक तो मिथ्यादृष्टि और दूसरे ज्ञानी जीव। जिनमें मिथ्यादृष्टि जीव तो आत्मा में आत्मतत्त्व को नहीं निहारते हैं। तो शरीर में यह मैं आत्मा हूँ―इस प्रकार का जो ज्ञान है वह तो शरीर परंपरा मिलते रहने का कारण है। और शरीर से परे अपने आपके स्वरूप में वह में आत्मा हूँ इस प्रकार की जो दृष्टि है वह मुक्ति प्राप्त कराने का कारण है। मूल में दो ही चीजें हैं। जिसे धर्म करना है उसे प्रारंभ में क्या करना चाहिए, कैसा अनुभव करना चाहिए कि धर्म लगता रहे। अपने आपका ऐसा अनुभव करें कि मैं शरीर से न्यारा केवल ज्ञानानंद स्वरूपमात्र यह मैं आत्मतत्त्व हूँ―ऐसा ज्ञान करें, निर्णय करें और इसकी दृष्टि प्रबल बनायें। धर्म के लिए जो अनेक प्रकार के परिश्रम किए जाते वे सब परिश्रम भी सफल हो जायेंगे यदि एक यह दृष्टि अपने को मिल सके। कौनसी दृष्टि? समस्त इंद्रियों का व्यापार रोकर शरीर से और भीतर शरीर को छोडकर कुछ ऐसा देखें कि अपने आपमें केवल एक ज्ञानज्योति का परिचय रहे, शरीर का भी भान न रहे, ऐसी परिस्थिति में ज्ञान की अनुभूति होगी, आत्मा की अनुभूति होगी और विशुद्ध आनंद का अनुभव मिलेगा। फिर यह दृष्टि बनी रहे कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर से निराला ज्ञानानंद आश्रयभूत कोई जुदा तत्त्व हूँ। ऐसी दृष्टि बन जाय तो समझिये कि अब इस मोक्षमार्ग में चल रहे हैं, और जहाँतक शरीर की दृष्टि है, यह मैं हूँ, इस मुझको आराम चाहिए। अरे ऐसी दृष्टि रहने में आराम सारा खतम होगा। जहाँशरीर में आत्मबुद्धि की, शरीर को विषयों का आराम चाहिए तो आराम उसी समय में खतम हो गया। यह जीव अनादि से शरीर में आत्मबुद्धि करके अपने आत्मीय आनंद को नष्ट करता चला आ रहा है। जब यह जीव अपने आपमें अपने आपका अनुभव करता है तब उसे एक आराम मिलता है, क्योंकि आराम है अपने विकल्प और निर्विकल्प में। जहाँविकल्प हो वहाँ आराम कहाँ? जहाँ-जहाँक्षोभ नहीं वहाँ सब आराम है। इससे प्रथम यह निर्णय बनायें कि जिसे कोई जानता है वह तो मैं नहीं हूँ। जिससे कोई बोलता हैवह मैं नहीं हूँ। लेकिन जिसे निरखकर लोग व्यवहार करते हैं भला या बुरा वह मैं नहीं हूँ। मैं तो वह हूँ जिसे लोग जानते नहीं, अथवा कोई जानने वाला हो तो वह मेरे स्वरूप में घुल जाता है, जो स्वरूप मेरा है वही स्वरूप उसका है। अपने उस स्वरूप को जान लिया। सो मैं सबसे परे निराला कोई ज्ञानमात्र तत्त्व हूँ ऐसी दृष्टि बने तो समझिये कि हमको मनुष्यभव का लाभ मिल गया। और यह दृष्टि जब तक न बने तो आप अनुभव करते होंगे कि अशांति ही अशांति है। चाहे वैभव पर दृष्टि हो, चाहे शरीर पर, सभी एक स्वार्थ भरी बुद्धि हो जाती है। और जहाँअपना व्यक्तितत्त्व माना, अपनी स्वार्थभरी दृष्टि बनी वहाँ फिर सर्वत्र विपदा ही विपदाहै।
भैया ! अब तो धर्म करें मायने विपत्ति से बचें, यह सीधा अर्थ है। धर्म करने का अर्थ है कि शांति पावें, परमविश्राम पावें, अपने में आराम पायें तभी कल्याण भी हो सकता है। जो धर्म कर रहा है उसे शांति नहीं मिल रही, कषाय जग रही हे तो समझिये कि वहाँ धर्म नहीं है। केवल नाममात्र का धर्म कर रहा है। तो धर्म वहाँ है जहाँ शांति है, जहाँपरमविश्राम है, और यह विश्राम कब हो सके जब आत्मा आत्मा के सही स्वरूप को जाने और वही उपयोग लग जाय। बाहर में सब ओर से अपना मुख मोड़ लें तो शांति आ सकती है। धर्म के लिए भीतर में इतना महान पुरुषार्थ करना पड़ता है वह पुरुषार्थ कैसे मिलता, कैसे बनता, उसका प्राथमिक उपाय है देव शास्त्र गुरु की सेवा। देव के सही स्वरूप को जानें। जो वीतराग है, सर्वज्ञ है वह देव है। जिसके जन्म जरा मरण आदिक कोई ऐब नहीं रहा, शरीर के सब दोषों से पृथक् हो गया है, अपने आपके विकास में परिपूर्ण हो गया वह देव है और उसे उपयोग में रखने से, उस देव की भक्ति का परिणाम रखने से हम उसकी ओर बसे रहेंगे। हमारे चित्त में वह देवस्वरूप बसा रहेगा जो मेरे स्वरूप के समान है। तो हमें अपने स्वरूप की सुध रहेगी और उस भक्ति के कारण कभी कोई प्रतिकूलता भी आये तो चूंकि हमें देव में विनय है तो उसके कारण हम बहुत सी विपत्तियों से बचे रहेंगे। इस कारण देवभक्ति का आलंबन इस मुमुक्षु को बहुत बड़े सहारे का आलंबन है। इसी प्रकार शास्त्र का आलंबन है। जो सर्वज्ञ देव की दिव्यध्वनि में प्रकट हैं वह शास्त्र हैं। आचार्यदेवों ने बड़ा परिश्रम करके इन शास्त्रों को तैयार करके रख दिया है। जैसे बना बनाया भोजन रखा हो और कोई भोजन न करना चाहे तो कोई वश नहीं है इसी प्रकार सज़ा सजाया आत्मीय भोजन ग्रंथों में लिखा पड़ा हुआ है, आचार्यदेवों ने बड़े-बड़े अनुभवों से बड़ी कठिनाई से जाना है, उस सबका सब अनुभव आचार्यों ने लिख दिया फिर भी हम उसका अध्ययन न करें, उसमें उपयोग न लगायें, उसका मर्म न पहिचानें, उसका मर्म जानने के लिए गुरुजनों का संसर्ग न बनायें तो यह कितनी मूढ़ता भरी बात कही जाय?
ये संसार के सर्व समागम मिटेंगे। इन समागमों में कहाँविश्वास बनायें? कौन चीज यहाँ ऐसी है चेतन अथवा अचेतन, घर के पुत्रादिक अथवा ये धन, वैभव, सोना, चाँदी व्यापार रोजगार आदि जो कि इस जीव का साथ निभा देंगे? सभी बिछुड़ जायेंगे। जीव का साथ कोई न निभा सकेगा। जब मेरा साथ निभाने वाला इस दुनिया में नहीं है तो मैं यहाँ किसकी भक्ति करूँ? यहाँ रुचि के लायक कोई तत्त्व नहीं है। अरहंत भगवंत ने जो उपदेश किया है, जो शास्त्रों में निबद्ध है, जिसे ऋषिजनों ने अपने आत्मा में उतारकर सही निर्णय किया है। तो आप समझिये कि यह शास्त्रों का उपदेश कई जगहों से निर्माण होकर हमें मिला हुआ है। जैसे कहीं से पानी बहा, एक बार मशीन से छना, फिर दूसरी जगह छना, फिर तीसरी जगह छना, कई जगहों से छनकर आया पानी जैसे वह निर्मल है इसी प्रकार यह तत्त्व पहिले निर्मल था लेकिन उस तत्त्व को संतों ने अपनी युक्ति और अनुभव से उतारा है, अपने दिल में छाना है, यों अनेक संतों ने छाना, निर्णय किया, खोजा, फिर कितना छन-छन करके आया हुआ तत्त्व आज शास्त्रों में उपलब्ध है। उसे भी न समझें, उसके माध्यम से हम अपने आपके स्वरूप को न जानें तो यह हमारी कितनी बड़ी भूल भरी गलती है? हम आप सबके ज्ञान का क्षयोपशम है, आत्मा के मर्म की बात समझ सकते हैं, अच्छी तरह जान सकते हैं। जिसके इतना ज्ञान है कि बड़े-बड़े रोजिगार बना लें, बड़ी-बड़ी युक्तियाँ बना लें, हिसाब किताब बना लें, अनेक तरह के पदार्थों का निर्माण कर लें, अनेक कलायें जानें, संगीत कला, लेखन कला, भाषण कला, जहाँइतना ज्ञान है, क्या यह ज्ञान अपने ज्ञान के स्रोतभूत एक अपने आपके आत्मा का निर्णय न कर सके सो कठिनाई है क्या? केवल रुचि चाहिए।थोड़ा यह समझकर कि संसार का समागम मेरा साथी नहीं है इसलिए इनमें ही दिमाग लगाना उचित नहीं है, ऐसा जानकर थोड़ा अपने आपके आत्मा की रुचि जगे, बाह्य समागमों से मुख मोड़े। ज्ञानसाधना में बढ़ें तो इससे हम आपका भविष्य निर्भर है। इस श्लोक में मूल बात इतनी कही जा रही है कि इस शरीर में जो यह मैं आत्मा हूँ इस प्रकार का ज्ञान करता है वह तो शरीर के मूल की परंपरा बढ़ाता है। और कोई अपने आत्मस्वरूप को नजर में रखकर अपने आपका ज्ञान करें, अनुभव करें कि यह मैं ज्ञानानंदस्वरूप मात्र हूँ तो यही विज्ञान शरीरों से निवृत्त होने का कारण है। चाहिए क्या? निर्वाण। निर्वाण मायने सारे दु:ख बुझ जायें, कोई कष्ट न रहे, परमशांति हो तो उसका उपाय है परमशांतस्वरूप इस आत्मा में ही ‘यह मैं हूँ’ इस प्रकार का निर्णय रखे। तो यही धर्म है, यही मोक्षमार्ग है। इसी से ही ऐसा दुर्लभ नर जन्म पाना, श्रावककुल पाना, जैन शासन का पाना सफल है।
विषय और कषायों में कोई तत्त्व लाभ नहीं है। लोग तो कषायें करके कुछ लाभ मिल जाने पर समझते हैं कि इस कषाय के करने से मुझे लाभ मिला, पर यह उनका मेरा भ्रम है। कषायें करने से तो बुद्धि काम नहीं देती है। बुद्धि काम न देने से फिर वह अटपट व्यवहार करने लगता है। इससे कषायें करने से लाभ कुछ नहीं है। इस क्रोध कषाय को भी छोड़ें। किस पर क्रोध करना, कौन मेरा शत्रु? दुनिया में अनंत जीव हैं, सभी स्वतंत्र-स्वतंत्र हैं। सभी के अपने-अपने कर्म लगे हैं, मेरा कोई बिगाड़ नहीं कर सकता। हाँ मेरे ही पाप का उदय हो तो मेरे बिगाड़ का कोई न कोई कारण बन जायगा। तो किस पर क्रोध करना? मेरा बिगाड़ तो पापोदय से होता है, मेरा बिगाड़मेरे ही अज्ञानभाव से होता। यहाँ कोई मुझ पर क्रोध भी नहीं करता, क्रोध करने वाला अज्ञानभाव से अपने आपमें ही क्रोध करता है इस प्रकार का सही ज्ञान बने तो आप यह समझ लीजिए कि हमने अपने आपमें अपना वैभव पाया।
क्रोध करना तो आसान है, भोग भोगना तो आसान है। क्रोध न जगे, भोग भोगने की बात भी मन में न आये, इसमें बड़े पुरुषार्थ की जरूरत है, बड़ी गंभीरता की आवश्यकता है। पर हमें भोग न चाहिए, भोगों का परिहार कर दे, इसमें आवश्यकता है बड़े ज्ञानबल की। तो प्रयत्न करे अपने आत्मस्वरूप का निर्णय करके कि क्रोध न आये। अभिमान भी किस बात का? आज कोई राजा है, वह मरकर कीड़ा बन गया तो क्या रहा? और राजा भी है तो क्या हुआ? शांति और अशांति का निर्णय राज्य वैभव से नहीं किंतु सम्यग्ज्ञान से होगा। सम्यग्ज्ञानी पुरुष अभिमान नहीं करना। अभिमान तो अहितकारी चीज है। अभिमान किस बात है? बड़े-बड़े चक्रवर्ती भी नहीं रहे। चक्रवर्ती जब 6 खंड पर विजय प्राप्त करके कई हजार मिल पृथ्वी पर जब अपना नाम खोदने लगता है तो उसे अपना नाम खोदने के लिए ऐसी जगह नहीं मिलती जहाँ पर दूसरे चक्रवर्ती का नाम न खुदा हो। तो कितने-कितने चक्रवर्ती हो गए पर सभी मर गए। दूसरों का सम्मान करने का अपना परिणाम जगे, दूसरों का बड़प्पन रखने की वृत्ति जगे तो इसमें अपनी भलाई समझिये।
मायाचार किससे करना?मायाचार किया जाता हैकिसी चीज की प्राप्ति के लिए। कोई इष्ट वस्तु प्राप्त करने के लिए मायाचार करना पड़ता है। तो संसार में कौनसा ऐसा पदार्थ है जो परम इष्ट है, जो हमारा कल्याण कर दे? मायाचार भी किस बात पर करना? ये सब विनाशीक बातें हैं। मायाचार भी किस बात पर करना? इसी प्रकार लोभ कषाय में किस बात पर करना? यहाँ पर कोई चीज अपनी नहीं है। सभी परद्रव्य हैं, उदय के अनुसार प्राप्त हो जाते हैं। प्राप्त हो जाने के काल में भी यह वैभव अपना नहीं है। और फिर लोभ से इस वैभव का संचय भी न होगा, बल्कि मिटता है। कषायों से पाप जगे तो इस आत्मा में पाप ही बढ़े, पुण्य घटा, वैभव दूर हो गया। तो क्षोभ भी न करना चाहिए। भोग विषयों की भी धुन न बने। शरीर की रक्षा के लिए थोड़े से भोजन की आवश्यकता है। यह शरीर धर्मसाधना करने में सहायक है इसलिए इसकी रक्षा के लिए भोजन करना भी आवश्यक है। तो शरीर स्थिति का कारण भोजन है। इससे भोजन किया जाता है, पर किसी भी प्रकार विषय कषायों की, भोगों की रुचि न रखें। और अपने आपमें अपने आत्मा के स्वरूप की सुध रखें तो समझिये कि हम धर्म का पालन कर रहे हैं। अपने आपकी सुध करें और बाहरी तत्त्वों में अपने ज्ञान को न अटकायें तो समझिये कि हमने धर्म किया। शरीर को यदि मानाकि यह मैं हूँ तो इससे तो शरीर मिलते रहने की परंपरा बनेगी और जब शरीर से अत्यंत भिन्न अपने आत्मतत्त्व को लगावो तो उससे संसार की भटकना मिटेगी। जिसने इस शरीर को इष्ट मानाहै वह इस शरीर के वियोग काल में दु:खी होता है।क्षुधा, तृषा, ठंड-गर्मी, फोड़ा-फुंसी, रोगादिक ये सबके सब इस शरीर के कारण होते हैं। शरीर का मिलते रहना तो अपने लिए एक कलंक की बात मानना चाहिए। मैं तो इस शरीर से रहित केवल ज्ञानानंदस्वरूप अपने आपका अनुभव करूँ। इससे शरीरों का मिलते रहना बंद हो जाय तो यह हमारे भले की बात है। यह जीव जब यह अनुभव कर ले कि मैं शरीर नहीं हूँ। हमारा धर्म प्रकट हो, हमारे ज्ञान का पूर्ण विकास हो, यदि यह बात इष्ट है तो यह अनुभव करें कि मैं शरीर से निराला केवल ज्ञानानंदमात्र आत्मा हूँ। ऐसे अनुभव से ही इस जीव को शांति प्राप्त होगी। जिसे अपना कल्याण चाहिए उसका यह कर्तव्य हे कि इस शरीर से भिन्न अपने आपको केवल चैतन्यप्रकाशमात्र निरखे।