वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1573
From जैनकोष
नगग्रामादिषु स्वस्य निवासं वेत्त्यनात्मवित्।
सर्वावस्थासु विज्ञानी स्वस्मिन्नेवास्तविभ्रम:।।1573।।
जो अपने आपको नहीं जानता मैं आत्मा किस स्वरूप वाला हूँ, किस तत्त्व से रचा गया है, क्रियात्मक है, जब अपने आत्मा का ही पता नहीं रहता तो वह बाहर में यों देखता है, यों समझता हे कि मैं नगर में रहता हूँ, पर्वत में रहता हूँ, जंगल में रहता हूँ। लेकिन जो ज्ञानी पुरुष है वह सभी अवस्थावों में खाते हुए, व्यापार करते हुए, जाते हुए सभी स्थितियों में ऐसा समझता है कि में तो अपने आत्मा में हूँ, और वास्तव में आत्मा-आत्मा में ही रह सकता, बाहर नहीं। अज्ञानी भी बाहर नहीं रह सकता। वह कल्पना में मानता है कि मैं किसी बाहर को जानता हूँ, बाहर से मेरा संबंध है, एक कल्पनामें वह समझता है, वह जाने वह भी बाहर में, अपने में बैठी चीज है। जैसे यह चौकी है तो चौकी अपने में रहती है, इसे चाहे जितने टुकड़ों में काट दो पर यह तो अपने में ही रहती है इसी प्रकार यह आत्मा सब अवस्थावों में अपने में ही रहता है। चाहे सुख भोगे दु:ख भोगे, जायगा कहाँ यह आत्मा? कोई पदार्थ अपने स्वरूप से बाहर नहीं जाता, पर में नहीं रमता। सभी पदार्थों की यही बात है कि वे सब पदार्थ अपने स्वरूप से हैं। अपने प्रदेशों से हैं, अपने आप स्वयं रहा करते हैं। तो ज्ञानी पुरुष जानता हे कि यह आत्मा अपने आपके आत्मा में रह रहा है। अगर रागद्वेष रूप से ठहरता हे तो यों समझते हैं कि यह विकारी बन रहा है और शुद्ध ज्ञान से अपने ज्ञान में लीन हुआ परिणमता है तो मोक्षमार्ग के अनुकूल बात हो ही जाती है। ज्ञानी जीव पर का आधार अथवा आधेय नहीं है परमार्थ से। यों तो यह चौकी पर घड़ी रखी है तो चौकी के औंधा देने पर यह घड़ी नीचे हो गयी, चौकी ऊपर हो गयी, यह तो व्यवहार की बात हो गयी, मगर सूक्ष्मदृष्टि से देखो तो घड़ी पर यह घड़ी स्वयं है अन्य पदार्थ नहीं है।घड़ी का संस्थान, घड़ी का अस्तित्त्व घड़ी में है, घड़ी से बाहर नहीं। और इस दृष्टि से जरा आकाश और आत्मा की भी बात देख लो। लोग कहते हैं कि और बात प्रचलित है कि आत्मा आकाश में रहता है, पर आत्मा का जो स्वरूप है उस स्वरूप दृष्टि से आत्मा-आत्मा में ही है, किसी पर में नहीं, क्योंकि आत्मा का जो अस्तित्त्व है वह आत्मा ही रूप है, पररूप नहीं है, इसलिए परमार्थ से आत्मा-आत्मा में ही हे और व्यवहार से आत्मा आकाश में है। व्यवहार किसे कहा? दो बातों को सामने रखकर फिर उसका कोई निर्णय बने वह व्यवहार है।घड़ी और चौकी इन दो चीजों को सामने रखकर व्यवहार बनता है, तो कहना होगा कि घड़ी आधेय है और चौकी आधार है।व्यवहार में यह तक रख सकते हैं कि इस चौकी को झटका देकर हटा दो तो अपने आप गिर जायगी। गिर जाने दो घड़ी तिस पर भी घड़ी-घड़ी में है। वह अपने स्वरूप को छोडकर बाहर नहीं गई। स्वरूप दृष्टि से प्रत्येक आत्मा अपने ही आपमें है। किसी परपदार्थ में नहीं है। लेकिन ऐसा जो मान लेते हैं, जिनकी दृष्टि में यह बात समाती है वह ज्ञानी है, और जो अपने को पर्यायमात्र मानते हैं वे अज्ञानी हैं। सभी जगह यह बात लगा लो अपनी-अपनी सर्वदा। जैसे किसी के प्रति लोग कहते हैं कि यह ही सबको पाल रहा है, यह यदि न हो तो ये बच्चे, नाती, पाते सब बरबाद हो जायेंगे। तो यह बात बाहरी व्यवहार की है। अंतरंग व्यवहार से देखो तो सभी जीवों के साथ अपने-अपने कर्म लगे हैं।
कोई बड़े घर में पैदा हो तो पैदा होते ही अच्छे बुलावा वाले आते, बड़ी-बड़ी रकमें पेश की जाती हैं, बड़ी-बड़ी खुशियाँ मनायी जाती है, उसके लिए सज़ा हुआ बढ़िया मोतियों का पालना लाया जाता है। अरे अभी वह छोटा बच्चा है, किसी का कुछ काम भी नहीं कर सकता, मल-मूत्र भी उसका उठाना पड़ता, फिर भी उसकी बड़ी-बड़ी सेवायें हो रही हैं। तो कुछ बात तो हे वहाँ जिससे उसकी इतनी-इतनी सेवायें हो रही हैं। तो बात है उसका कर्मोदय। और जो ऐसा जानता है उसको अपनी जिंदगी में क्लेश नहीं होता। कभी कोई पुत्र अपने प्रतिकूल पड़जाय, यथातथा बात बिगाड़ने लगे, सेवा सुश्रूषा न करे, तो भी ज्ञानी को कष्ट नहीं होता, जो यह समझता है कि मुझे इसके पुण्योदय के कारण इसके पढ़ाने लिखाने तथा पालन पोषण की सेवायें करनी पड़ी थी। इसका पुण्य इतना प्रबल था कि मुझे इसकी नौकरी बजानी पड़ी थी। इसका पुण्य का प्रबल उदय था तो में इसकी सेवायें न करना तो मेरी जगह पर और किसी को इसकी सेवायें करनी पड़ती। एक घटनाहै कि राजा सत्यंधर की रानी के गर्भ था। उसी समय सत्यंधर ने अपना राज्य एक काष्ठ बेचने वाले को दे दिया था। क्यों दे दिया था कि उस राज्य की वजह से उसके आनंद में, मौज में, घर में बाधा आती थी। काष्ठ बेचने वाले ने सोचा कि जब तक सत्यंधर राजा जीवित है तब तक दुनिया यही कहेगी कि यह इसका दिया हुआ राज्य है, सो सत्यंधर पर उसने चढ़ाई कर दी। राजा सत्यंधर ने अपनी गर्भवती रानी को एक विमान में बिठाकर उड़ा दिया। वह विमान ऐसा था कि दो घंटे तक उड़कर कहीं भी गिर जाय। सो वह विमान बड़ी दूर पर एक मरघट में जा गिरा। वही पर जीवंधर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। रानी ने सोचा कि यदि इस लड़के का भाग्य है तो मनुष्य क्या, देवता भी इसकी रक्षा करेंगे और यदि भाग्य नहीं हे तो हम चाहे गोद में लिए रहें तो भी नहीं रह सकता है। सो रानी उसे वही मरघट में छोडकर बहुत दूर जाकर छिप गयी। एक बड़ा भारी शेर उस मरघट में आया, उसे वह बच्चा प्रिय लगा। उसे पाला पोसा। तो जब पुण्योदय है तो घर का आदमी न हो तो कोई और नौकर बनेगा सेवा करने के लिए। यह सोचना मिथ्या है कि मैं परिवार के सभी लोगों को पालता हूँ। अरे उन्हें आप नहीं पालते। उनका उदय उनके साथ है। हाँ उनका यदि पुण्य का उदय हे तो आपको उनकी नौकरी बजानी पड़रही है। यहाँ कोई किसी का कुछ नहीं करता। सभी अपने आपमें अपना परिणमन कर रहे हैं। ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करता है कि जीव-जीव में ही है, और जगह नहीं, आकाश आदिक में जीव नहीं। जीव में जीव है, यह परमार्थ दृष्टि की बात है। आकाश में जीव है―ऐसा सोचने में दो द्रव्यों पर दृष्टि है, व्यवहार दृष्टि है। प्रत्येक पदार्थ अपने आपमें ही रहता है। यह मर्म ज्ञानी जानता है कि सभी अवस्थाओं में यह आत्मा अपने आत्मा में ही रहता है ऐसा अपने को देखता है और ऐसा ही अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करता है। और जब अज्ञान का अनुभव प्रबल होता है तो इस आत्मा में आनंद की लहर ऐसी उत्कृष्ट वेग के साथ उठती है कि यह आत्मा उस समय उस आनंद में तृप्त हुआ अपने आपको पहिचानता है और सर्व क्लेशों से मुक्त होता है। जब यह आत्मा-आत्मा में हो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप से ठहरता है तो इसे मुक्ति की प्राप्ति होती है। सो हमें भी चाहिए कि अपने आपको जानें और अपने आपमें अपने उपयोग को रमाने का यत्न करें।