वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1624
From जैनकोष
मज्जनोन्मज्जनं शश्वद्भजंति भवसागरे।
वराका: प्राणिनोऽप्राप्ययानपात्रं जिनेश्वरम्।।1624।।
ये संसार के प्राणी श्रीमान सर्वज्ञदेव के द्वारा बताये गए रत्नस्वरूप माग्र को न पाकर इस संसाररूपी सागर में निरंतर जन्म और मरण को प्राप्त कर रहे हैं। कभी हर्ष मानते हैं, कभी विषाद करते हैं, इस प्रकार इनका यह जन्म मरण अज्ञान भाव से चल रहा है। इन कायर पुरुषों ने इन बेचारे असहाय आत्मावों ने जिनेश्वरदेव के प्रणीत ज्ञानरूप भाव पात्र को नहीं पायाहै इसीलिए संसार में गोते खा रहे हैं। हम आपको इस संसारसागर से तिराने का साधन है श्रुतज्ञान, भावज्ञान, आत्मज्ञान इसको नहीं पाया अभी तक। बाह्य पर ही दृष्टि रही, शरीर पर ही दृष्टि रही, शरीर में ही आत्मबुद्धि की। यह उपयोग यद्यपि स्वयं ज्ञान के आधार में है, ज्ञानरूप है लेकिन इसने अपना मुख ऐसा सामने की ओर बाहर में किया कि एकदम यह अपने से बाहर बन गया। अपने आपकी इसे सुध नहीं रही। देखिये उपयोग स्वयं का ही है, पर उपयोग का झुकाव बाह्य की ओर होने से यह खुद बिल्कुल अंधेरे में हो गया। जैसे यह बैट्री या बिजली स्वयं प्रकाशमय है, मगर मुख उसका बदल जाय तो बाहर में प्रकाश करेगी और अपने आपको अंधेरे में रखेगी। यह स्थिति इस उपयोग की हुई है कि हम उपयोग से अपना सुख अपनी चोंच बाहर में बनाया है सो बाहर की बात का तो यह प्रकाश पा रहा है और अपने आपको इसने अंधेरे में बना लिया। गलती कितनी सी कही जायगी? बिल्कुल थोड़ी, जैसे कोई छोटी बैट्री लिए है थोड़ा सा हाथ बदल दिया। गलती कितनी है मूल में।थोड़ा हाथ यों बदल दिया, लेकिन परिणाम कितना उल्टा निकला कि बाहर को तो प्रकाशित किया और खुद को अंधेरे में रखा। इसी प्रकार भीतर में विकारभाव कहने के लिए बहुत थोड़ा है, मगर इसने सुख कर दियाबाहर की ओर।जान तो अब भी रहा है पर भीतर में एक उन्मुखता का जरा सा प्रवेश किया उसने। फल उसका इतना है कि कभी यह जीव नारकी, कभी पशु-पक्षी बना, जन्ममरण करता, परिणाम इसका खोटा निकला। मूल में गलती कैसी थोड़ी थी? जैसे कोई नौकर या कोई अपने बंधु-मित्र इष्टजनों पर बहुत बड़ा विश्वास रखता है। कोई काम बहुत ज्यादा बिगड़ जाय खबर न रहने से, उस समय कुछ खबर न रही, जैसे मानो कल की कोई तारीख हो मुकदमा की और तारीख की याद भूल गए और वहाँ मामला विरुद्ध फैसले में आ गयातो मालिक जब पूछता है―कहो भाई क्या हुआ? तो वह कहता है कि जरा तारीख की खबर न रही, बस काम बिगड़ गया। तो ऐसे ही समझिये कि हमने सुनने को तो हमारी जरासी चूक है मूल में, क्या कि इस उपयोग ने अपना मुख बदल दिया पर परिणाम भयानक निकल रहा है कि निगोद में रहे, स्थावरों में गए, ज्ञान का विकास नहीं है, दु:ख संक्लेश भोगते हैं, इतना खोटा परिणाम निकला। अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष चिंतन कर रहा है कि एक इस जिनेश्वर यान पात्र को न पाकर, इस रत्नमय मार्ग को न पाकर, अपने आपका प्रकाश न पाकर यह जीव अभी तक संसार में भ्रमता चला आया है, बरबाद होता चला आ रहा है। यह उपयोग कुछ थोड़ा सा मुख मोड़ले, स्व के उन्मुख हो जाय तो सारे संकट कट जाते हैं। तो यही बात सबकी हुई ऐसा चिंतन करता है अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष ताकि अनादि से चले आये हुए ये रागादिक बैरी नष्ट हो जायें। यह अपायविचय धर्मध्यानी, आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष धर्मध्यान से कुछ उत्कृष्टता रखता जा रहा है। अब इसमें वैराग्य का अंश कुछ बढ़ा हुआ है। चाहे अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुष है वही एक आज्ञाविचय धर्मध्यान से लगा है। उस समय की जो उसकी स्थिति है, उससे विशिष्ट और वैराग्य की ओर रहने वाली स्थिति अपायविचय धर्मध्यान के समय बनती है।