वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1625
From जैनकोष
महाव्यसनसप्तार्चि प्रदीप्ते जन्मकानने।
भ्रमताऽद्य मया प्राप्तं संयग्ज्ञानांबुधेंतटं।।1625।।
महान विडंबनाओंरूप सप्तार्ची से प्रदीप्त इस जन्म वन में भ्रमते हुए उसने आज सम्यग्ज्ञानरूपी सागर का तट प्राप्त किया है। रागद्वेष, संकल्प-विकल्प आदिक ये महाव्यसन हैं, ये सब अग्नि हैं, 7 चीजों की लहरें उठें, तरंगें उठें उसे सप्तार्ची कहते हैं। जैसे अग्नि प्रदीप्त होती है तो उसमें कोई निखर छूटती है। तो रूढि में 7 शब्द बहुत का सूचक है। जैसे किसी को धूर देनी होती तो कहते कि इसके 7 पीढ़ी की धूर दो। जो तुम्हें करना हो सो कर लो। तो जब बहुत को बात देनी होती है तो 7 शब्द का प्रयोग व्यवहार में किया जाता है। तो अग्नि के जब कोई बहुत प्रदीप्त होते हैं तो उसमें कई जगह लपटे शिखरें उठी हैं इसलिए अग्नि का नाम सप्तार्ची रखा गया है। तो महान अग्नि में जलते हुए इस जन्मरूपी वन में भ्रमण करते हुए उसने आज सम्यग्ज्ञानरूपी समुद्र का तट प्राप्त किया है, विनाश का चिंतन कर रहे हैं ना तो हम विनाश करने में समर्थ हैं कि नहीं―यह भी चिंतन में आये तब विनाश का चिंतन चल सकता है। तो अब ऐसी सामान्य की बात का विचार कर रहा है कि मैं घूमा तो बहुत अब तक लेकिन घूमते हुए मैंने आज यह सम्यग्ज्ञान समुद्र का तट प्राप्त किया है। अब हममें यह सामर्थ्य है कि इस दृष्टि को पाकर हम इन संकटों को दूर कर सकते हैं। जो विनाश कर सकता है उसका चिंतन तो सही है और जो समर्थ ही नहीं है वह चिंतन करें तो खानापूर्ति करना है और मान लेते हैं कि मैंने धर्मध्यान किया, हमने आज सम्यग्ज्ञान पाया, वस्तुस्वरूप को बोध किया, हम अपने आत्मतत्त्व का ग्रहण करके उसकाआलंबन लेकर उसकी दृष्टि के बल से इन रागादिक विभावों को सबको नष्ट कर सकते हैं ऐसा इसमें साहस जगा है और अपायविचय करके अपने धर्मरूप परिणमन कर रहा है।