वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1677
From जैनकोष
अधो वेत्रासनाकारोमध्ये स्याज्झल्लरीनिभ:।
मृदंगोभस्ततीप्यूर्ध्व स त्रिधेति व्यवस्थिति:।।1677।।
लोक का आकार―यह लोक नीचे से तो चौड़ा है और फिर घटता-घटता सकरा हो गया, वहाँ एक राजूप्रमाण है। यह तो हुई अधोलोक की रचना और मध्यलोक है झालर के आकार, बड़े मध्यलोक की चौड़ाई से करीब थोड़ा बाद थोड़ा नीचे है और उसके ऊपर ऊर्ध्वलोक है वह मृदंग के आकार है। जिसमें ढंग नीचे सकरा ऊपर सकरा और बीच में बड़ा बैठे इसी प्रकार यह ऊर्ध्वलोक नीचे एक राजू, ऊपर एक राजू और मध्य में 7 राजू है, इस तरह की तीन लोक की रचना है। अनेक गणित से फैलाया जाय तो यह सब 343 घन राजू प्रमाण विस्तार का निकलता है। इन सबका परिणाम कितना है? तो उस परिणाम को जानने के लिए कई तरह से गणित बनती है। मोटे रूप से तो यों हिसाब लगायें कि यह अधोलोक 7 राजू चौड़ा है और ऊपर एक राजू चौड़ा है तो ये 8 राजू हुए और नीचे बराबर 7 राजू हैं तो उस 7 राजू के आधे कर दिया जाय तो 3।। हुए। 8 में 3।। का गुणा किया और 7 राजू सर्वत्र चौड़ा है तो 7 राजू में गुणा किया उतने प्रमाण तो अधोलोक है। मध्यलोक का अलग से कुछ प्रमाण नहीं बताया गया। कारण यह है कि मध्यलोक प्रतर रूप में एक राजू चौड़ा तो है, पर उसकी मोटाई राजू प्रमाण नहीं होती। ऊर्ध्वलोक का प्रमाण है नीचे एक राजू, बीच में 5 राजू जो कि 3।। राजू तक है अर्थात् 1+5=6 हुए, 6 के आधे 3 हुए और 3 से 3।। का गुणा किया तो हुए 10।।, और 10।। का 7 राजू से गुणा किया, उतना ही ऊपर है तो दोनों को मिलाकर ऊर्ध्वलोक की रचना होती है।
मनुष्यलोक की रचना का वैभव―देखिये हम लोग कहां हैं, इसके ऊपर कई लोक माने जाते हैं, देवता लोग निवास करते हैं कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि हम सब लोगों की रक्षा करने के लिए ऊपर देव बना दिए गए, नीचे नारकी हैं, मानों मनुष्यों को स्वरक्षित रखने के लिए नीचे नारकियों को भेज दिया गया, और फिर देखो हम आप लोग जन्मद्वीप के बीच में हैं, उसके चारों तरफ असंख्याते द्वीप समुद्र हैं, जो असंख्याते कोट और खाइयां भी चारों ओर हैं। कवि की कल्पना के अनुसार मनुष्य की रक्षा के कितने साधन बनाये गए फिर भी इस मनुष्य की रक्षा न हो सकी। ये ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक तीन प्रकार की लोक रचनाएं हैं जिनमें यह सारा लोक समा गया है, और इस लोक में जो कुछ भी चीजें मिलती हैं वे सब इस आत्मा के लिए पर हैं। उन सब गुणों से इस आत्मा का कोई लाभ नहीं है। आत्मा उन सब परिस्थितियों में मोह करके, बाहर उपयोग देकर रागी बनकर स्वयं कल्पनाएं करके दु:खी हो रहा है। उस दु:ख को मिटाने का सही उपाय यह है कि लोक में सत्य विज्ञान करें, अपने आत्मा का सत्य ज्ञान करें, इस सत्य ज्ञान से मोह हटेगा क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अपना ही अपना स्वरूप लिए हुए है। किसी पदार्थ का किसी पदार्थ में कर्तृत्व नहीं है। यों स्वतंत्र अपने एकत्वस्वरूप में अवस्थिति पदार्थ का परिचय होने पर मोह नहीं बसता। मेरा कौन है? सभी जुदे हैं, सभी अपने आपमें अपना उत्पाद व्यय ध्रौव्य किया करते हैं, सभी अपने-अपने स्वरूप में हैं। मैं किसे अपनाऊं, यथार्थ विज्ञान होने पर आत्मा का परवस्तुवों से मेल नहीं रहता।