वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1684
From जैनकोष
मिथ्यात्वाविरतिक्रोधरौद्रध्यानपरायणा:।
पतंति जंतव: श्वभ्रे कृष्णलेश्यावशं गता:।।1684।।
नरकों में जन्म पाने के हेतुभूत अंतरंग पापों का वर्णन―ये तो ऊपर कुछ प्रवृत्तिरूप पाप बताये जो कि लोगों को दिखते है, समझ में आते हैं, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह। अब इस छंद में बतला रहे हैं कि जो भीतरी पाप हैं उन पापों से भी इस जीव को नरकगति में जन्म लेना पड़ता है। जैसे मिथ्यात्व। है तो भिन्न पदार्थ, परपदार्थ, और उसे माने निज पदार्थ अर्थात् इस रूप मैं हूं ऐसी मान्यता रखना सो मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व के फल में जीव को नरकगति में जन्म लेना पड़ता है। कोई यह सोचे कि मैं किसी प्रकार बच जाऊं सो बच नहीं सकता।
मिथ्यात्वविषयक और भी मोटी बात देखिये―संसार के समस्त समागम धन वैभव कुटुंब आदिक ये सब विनाशीक हैं, इसका वियोग नियम से होगा। ये सब समागम अनित्य हैं तो इन्हें अनित्य ही जानना चाहिए तब तो सही बात है, किंतु अनित्य पदार्थों को यह मनुष्य समझ रहा है कि ये नित्य हैं। कोई मरेगा या धन नष्ट होगा तो दूसरे का मरेगा, मेरा कोई नहीं मरने का, ऐसा विश्वास लिए हुए लोग बैठे हैं। कभी जीभ से बोलना पड़ता है तो बोला जाता है, पर भीतर में यह बात श्रद्धापूर्वक नहीं बैठती। तो समस्त समागम अनित्य हैं लेकिन यह मानना कि ये सब नित्य हैं बस यही तो दु:ख का कारण है।
जरा सोचिये कि घर में कोई बड़ा प्यारा कुटुंब का कठिन बीमार है, उसको उस बीमारी से ग्रस्त हुए दो तीन वर्ष हो गए, खाट से भी नहीं उठा जाता, लोगों का यह विश्वास हो गया कि अब यह बचेगा नहीं, सो एक तो ऐसे व्यक्ति का मरण हो जाय और एक ऐसे व्यक्ति का मरण हो जाय कि जो बड़ा हष्ट-पुष्ट रहा हो और अचानक ही मरण कर गया हो। सो यह बताओ कि इन दोनों में से किसके मरण पर अधिक दु:ख लोगों को होगा? दु:ख तो ऐसे व्यक्ति के प्रति अधिक होगा जो हट्टा-सट्टा हो और अचानक ही मर जाय। उसका कारण यह है कि एक पुरुष के प्रति तो पहिले से ही जानकारी बना रखी थी कि अब यह बचेगा नहीं और एक पुरुष के प्रति पहिले से कोई जानकारी न बनाई थी कि अब इसका मरण हो जायगा, इस कारण जिस व्यक्ति के बारे में बहुत पहिले से मरण की बात जान रहे थे उस व्यक्ति के प्रति तो लोगों को दु:ख नहीं होता और दूसरे व्यक्ति के प्रति दु:ख होता है। जिस व्यक्ति के बारे में पहिले से ही जान रहे थे कि अब यह बच न सकेगा उसका मरण हो जाने पर उसका संबंधी ऐसा ख्याल करता है कि देखो जो मैं पहिले जान रहा था ना कि यह बचेगा नहीं, सो वैसा ही हुआ। इस कारण उसके प्रति दु:ख नहीं होता और जिसके बारे में पहिले से जानकारी ही नहीं बनायी हो और उल्टी ही श्रद्धा हो कि यह तो सदा ही रहेगा, उसके वियोग में दु:ख होता है। तो ये बारह भावनाओं में जो ‘अनित्य भावना’ भायी जाती है कि समस्त पदार्थ विनाशीक हैं, जो समागम मिले हैं वे नियम से मिटेंगे, इस भावना का फल यह है कि जब वियोग होता है तब उसको क्लेश नहीं होता। उस समय यह जान रहा है कि यह तो मैं पहिले से ही जान रहा था। जैसे किसी चीज का एक आविष्कार किया जा रहा हो और उसके विषय में दूसरा जानकारी रख रहा हो और कई बार वह बना चुका हो तो उस पदार्थ के बनाने पर वह ज्यादा खुश नहीं होता, क्योंकि वह समझ रहा है कि इस तरह से इसका निर्माण होता है, यह तो हम पहिले से ही जानते थे। इसी तरह की बात है। जिस वियोग को हम पहिले से ही समझ रहे हों उस वियोग में अधिक क्लेश नहीं होता। अनित्य भावना भाने से गृहस्थों को भी कितना अधिक फायदा है?