वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1703
From जैनकोष
तस्मिन्नपि मनुष्यत्वे परलोकैकशुद्धिदे।
मया तत्संचितं कर्म यज्जातं श्वभ्रशंवलम्।।1703।।
उत्थान के हेतुभूत मनुष्यत्व पाकर भी पापकर्म किये जाने का फल नरक जन्म―नारकी जीव विचार कर रहा है कि में मनुष्य था और वहाँ ऐसा वातावरण भी मिला कि परलोक को मैं शुद्ध बना लेता, इतना ज्ञानावरण का क्षयोपशम भी मिला, जानकारी की योग्यता भी मिली। मैं उस योग्यता का सदुपयोग कर लेता तो में संसार के दु:खों से छूटने का उपाय बना लेता, लेकिन ऐसे योग्य मनुष्यभव में भी मैंने ऐसे ही कर्मों का संचय किया, ऐसी ही कुबुद्धि की, जिसके फल में यह नरक का संबल मिला इनाम मिला, नारकी होकर दु:ख भोगना पड़ा है। कितना अमूल्य जीवन है यह मनुष्य का भव। तुलना करके देखो जगत के अन्य जीवों से साफ विदित होगा कि इससे श्रेष्ठ अन्य कोई भव न मिलेगा। लोग तो ऊपरी तारीफ करते हैं कि मनुष्य का चमड़ा भी काम न आया, पशुवों का चमड़ा भी काम आया, मनुष्यों की हड्डी भी काम न आयी, मनुष्य के रोम भी काम न आये, पर पशुवों की हड्डी, रोम आदि भी काम आ जाते हैं, तो इसको इस दृष्टि से सुना जाय कि मनुष्य यदि धर्म कार्य न करे तो इससे अच्छे पशु हैं, ठीक है लेकिन तुलना करके विचारो तो मनुष्य संसार के सर्व जीवों में सर्वोपरि जीव है। जहां संयम साधना कर सकते हैं, अपने उपयोग को अपने आपमें ऐसा स्थिर कर सकते हैं कि जितनी स्थिरता अन्य भव में संभव नहीं है। श्रुतकेवली यह मनुष्य ही होता है, मन:पर्ययज्ञानी यह मनुष्य ही होता है, परमावधि और सर्वावधि ज्ञान मनुष्य भव में ही होता है, केवलज्ञान मनुष्यभव में ही होता है, बाद में रहा आया सिद्ध अवस्था की भी प्राप्ति मनुष्यभव में ही होती है, ऐसा यह श्रेष्ठ मनुष्यभव है, किंतु एक सत्संगति का लगार लगा रहे जिससे उपयोग कुछ सावधान रहे और यह उपयोग सन्मार्ग में लगे तो भला है और सत्संग का अभाव रहा, उपयोग गलत मार्ग में चला जाय तो कुमार्ग ही कुमार्ग बढ़ता जायगा। वहाँ अशुभ कर्म का बंध, अशुभ आयु का बंध होता है जिसके फल में इस जीव को अनेक त्रास भोगने पड़ते हैं। इस लोक में अधोलोक की ऐसी विषम रचना है जहां कि भूमि अटपटी है, जहां के स्थल सुहावने नहीं, जहां जन्मस्थान भी अटपटे, एक तिकोने ऊपर भाग से वे नारकी टपक पड़ते हैं, वहाँ से उत्पन्न होकर अधोमुख गिरते हैं, वे स्थान टेढ़े मेढ़े ऐसे स्थान हैं कि वहाँ से ये नारकी जीव जन्म लेकर नीचे गिरते हैं। गिरते ही हजारों बार उस भूमि पर गेंद की तरह उछलते हैं और दूसरे नारकी जीव उन्हें मारने के लिए उन पर टूट पड़ते हैं। शरीर के खंड-खंड कर डालते हैं फिर भी कुछ ऐसा अशुभ कर्म का उदय है कि वे मरते नहीं हैं, वे शरीर के टुकड़े फिर पारे की तरह मिलकर शरीररूप हो जाते हैं, घोर वेदना पाते हैं, किंतु उनकी आयु अनगिनते वर्षों की होती है और वे आयु पूरी करने से पहिले मरते नहीं हैं, ऐसी नरक गति में जन्म अशुभ भाव के कारण होता है।