वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1704
From जैनकोष
अविद्याक्रांतचित्तेन विषयांधीकृतात्मना।
चरस्थिरांगिसंघातो निर्दोषोऽपि हतो मया।।1704।।
अज्ञान में विषयांध होकर जीवघात किये जाने के पाप का संताप―नारकी जीव विचार करता है कि मैंने अज्ञान से आक्रांत होकर और विषयों में अंध होकर त्रस और स्थावर प्राणियों का घात किया। भला बतलावो कि शिकार खेलने के व्यसन में जिस जीव का प्राण घात किया उस जीव ने इस शिकारी का क्या बिगाड़ किया, लेकिन वह शिकारी निर्दय होकर उस निरपराध पशु को मार डालता है। इस अपराध के फल में उस हिंसक पुरुष को ऐसे ही नरकों में जन्म लेकर घोर दु:ख सहने पड़ते हैं। यहाँ पर कोई पुरुष एक-आध जीव का अपकार करे तो राजा भी उसे दंड दे दे, पर जिसने अनेक जीवों का हनन किया उसको उतना दंड देने की सामर्थ्य यहाँ किसमें है? राजा ने एक बार फांसी दे दी तो उसका एक ही बार मरण हुआ, उसे अभी उतने पापों का फल तो नहीं मिल पाया। तो उन सभी पापों का फल है नरकों में जन्म लेकर घोर दु:ख सहन करना। दिन भर के करोड़ों बार मरण हो और फिर शरीर के टुकड़े-टुकड़े इकट्ठे हो जाते है फिर उसी दु:ख को भोगना पड़ता है, यह सब अज्ञान का माहात्म्य है। जिसने आत्मस्वरूप को जाना वह सबमें उसी स्वरूप को जानता है। देखिये स्वरूपदृष्टि से आत्मा सब समान हैं और समान को एक कह दिया जाता है। जैसे गेहूं का ढेर लगा हो तो ग्राहक लोग गेहूं को बहुवचन में नहीं कहते, एक वचन में बोलते हैं, यह गेहूं किस भाव में दिया है? अरे भाई ! तू क्या एक दाना खरीदना चाहता है? अगर तू बहुत से दाने लेना चाहता है तो यह कह कि इन गेहुवों को किस भाव से दोगे? मगर ऐसा कोई नहीं कहता। क्यों नहीं कहता कि जो समान चीज है उसमें एकवचन का प्रयोग होता है। स्वरूपदृष्टि से सब आत्मा एक समान हैं, चाहे प्रभु हो, चाहे संसारी हो, चाहे स्थावर हो, चाहे त्रस हो, जीव का स्वरूप एक ही है। स्वरूपदृष्टि से आत्मा एक है, ब्रह्म एक है ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं है परंतु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चतुष्टय लेकर पूर्ण सत् निरखकर एक कल्पना कर लिया जाय तो वहाँ आपत्ति आती है।
स्वरूपदृष्टि से समान व व्यक्तित्वदृष्टि से अनेक जीवों के तथ्य के ज्ञान बिना पाप प्रवृत्ति की संभवता―स्वरूपदृष्टि से आत्मा एक है, पर अनुभव दृष्टि से आत्मा अनेक हैं। आपका सुख दु:ख का अनुभव आपमें चल रहा है, मेरा सुख दु:ख का अनुभव मेरे में चल रहा है। यदि सभी जीव मिलकर एक ही ब्रह्म हों तो जो एक को अनुभव है वही सबको होना चाहिए, पर अनुभव सबके जुदे-जुदे हैं। इससे सिद्ध है कि आत्मायें अनेक हैं अनंत हैं किंतु स्वरूप एक है। जैसे गेहुवों का स्वरूप आकार रंग रूप और उसका स्वाद सब एक समान हैं, इसी प्रकार जीव का सारा ढांचा व गुण पिंड व स्वभाव सब जीवों में एक है। जिसने अपने आत्मा के स्वरूप का अनुभव किया उसने सब आत्मावों में उस स्वरूप का निर्णय किया, वह दूसरों के सताने का, उनका घात करने का भाव कैसे कर सकता है? जिसका चित्त अज्ञान से दबा हुआ है अपना कुछ पता नहीं और अपना और पराया भी मानेंगे तो एक पर्याय बुद्धि में अटककर ही अपने पराये का निर्णय करेंगे। जिनको परमार्थस्वरूप का बोध नहीं, अज्ञान से जिनका चित्त आक्रांत है और इस ही कारण विषयों में जो अंध बन गए हैं ऐसे पुरुषों ने त्रस स्थावर प्राणियों का उन निर्दोष प्राणियों का घात किया, जिसके फल में नरकभूमि में उत्पन्न होकर घोर दु:ख उठाने पड़े। सारे दु:खों की जड़ अज्ञान है। जो मैं नहीं हूं उसे मानना कि मैं हूं यह अज्ञान है। देह मैं नहीं, पर देह में इतना अभ्यास बना है, ऐसा अभिप्राय लगा है जीव के कि यह मैं हूं। देह को देखकर बोलते हैं कि यह मैं हूं, मैं ऐसा हूं। ये रागादिक विकार यद्यपि ये मेरे परिणमन हैं फिर भी मैं नहीं हूं। ये कर्मउपाधि का निमित्त पाकर होते हैं, मेरे स्वभाव नहीं, मेरे स्वरूप के कारण नहीं उठे हैं, लेकिन उन विकारों को मानना कि यह मैं हूं। पोजीशन, नामवरी, यश, ख्याति इन सबमें मानना कि इनसे मेरा हित है। ये ही मेरी चीज हैं, इनसे ही मेरा बड़प्पन है, यह सब मान्यता अज्ञानमयी है। सत्यभूत चीज क्या है? अपने में इसका यदि दर्शन करते हैं तो ये चतुराइयां, ये सब ज्ञान, ये सब विकल्प जो हमने सीखे हैं उन सबको दूर करके देखा जा सकता है, मेरे में सत्य तत्त्व क्या है? जब तक हम किसी विकल्प को अपनाये रहेंगे तब तक हमें उस सत्य का दर्शन न होगा। विकल्पों को अपनाने में, पर्यायों को आपा मानने में अज्ञान से मेरा चित्त दबा रहा, विषयों में अंध रहा, असंयम किया, इसके फल में नरकभूमि में जन्म लेना पड़ा है―ऐसा कोई प्रतिबुद्ध नारकी चिंतन कर रहा है।