वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1712-1713
From जैनकोष
यत्पुरग्रामविंध्येषु मया क्षिप्तो हुताशनः ।
जलस्थलबिलाकाशचारिणो जंतवो हता: ।।1712।।
कृंतंति मम मर्माणि स्मर्यमाणान्यनारतम!
प्राचीनान्यद्य कर्माणि क्रकचानीव निर्दयम् ।।1713।।
ग्रामादि को अग्नि से जलाने के पाप का संताप―नारकी जीव विचार करता है कि मैंने पूर्वभव में गांव में, वन में अग्नि डालकर ज्वालायें बढ़ाया और जलचर, थलचर, नभचर और बिलों में रहने वाले असंख्यात जीवों को मारा । वे ही उस पाप करते समय जब उसके स्मरण में आते हैं तो उसका हृदय दयारहित होकर करोंत के समान भेदता है । इस प्रसंग में यह भी बात बतायी जा रही है कि कौन-कौन से पाप करने से जीव नरकगति में जन्म लेता है? जो लोग बैर से या कौतूहल से गाँव में या वन में आग लगा डालते हैं वे कितनी हिंसा करते हैं? वहाँ के जलचर जीव मरें, थलचर जीव मरे और आकाश में पड़ने वाले जीव मरें । तो ऐसे पापकर्म हैं । ये इतने घोर पाप कर्म हैं कि इनके फल में नरक आयु का बंध होता है । नरक में आकर इस जीव को उन जीवों के द्वारा जिन्हें मारा था दुःख उठाना पड़ता है, वे इसकी हिंसा करते हैं । नारकी जीव का अर्थ ही यह है कि एक को दूसरे से प्रेम नहीं है । जैसे यहाँ मनुष्यों में कुछ ऐसे भी मनुष्य हैं कि परस्पर में बड़ा प्रेम रखते हैं । पक्षियों में भी कुछ पक्षी ऐसे होते हैं कि जो परस्पर में प्रेम से रहते हैं, पर नारकियों मे तो ऐसी प्रकृति है कि वे नारकी जीव परस्पर में प्रीतिपूर्वक नहीं रह सकते ।