वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1714
From जैनकोष
किं करोमि क्व गच्छामि कर्मजाते पुर: स्थिते ।
शरणं कं प्रपश्यामि वराको दैववंचित: ।।1714।।
नारकी का अशरणता में विलाप―फिर विचार करता है यह नारकी कि ऐसे नरकों के दुःखों में भी ये कर्मसमूह मेरे सामने हैं । अब मैं क्या करूँ? नरक भूमि में पड़ा, नरक भव में फंसा और फिर ये असाता वेदनीय आदिक अनेक कर्म मेरे सामने हैं, उदय में आ रहे हैं, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किसकी शरण देखूँ? कभी संताप से तृप्त होकर वृक्ष की छाया के नीचे जाता हूं तो वहीं की पत्ती तलवार की धार के समान गिरती है । कभी डरकर नारकी जीव के समीप जाऊँ तो वही नारकी घात कर डालता है । पृथ्वी पर ही पड़ा रहूं, न हो कोई दूसरा मारने वाला तो वहाँ के भूमिजन्य दु:खो से पीड़ित रहता हूँ । कहाँ जाऊँ, अब तो मुझे सुख का कोई उपाय नहीं दिखता।