वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1726
From जैनकोष
याति सार्द्धं तत: पाति करोति नियतं हितम ।
हंति दुःखं सुखं दत्ते यः स बंधुर्न योषित: ।। 1726।।
धर्म की बंधुता व स्वजनों की अबंधुता का विचार―फिर यह नारकी विचार करता है कि धर्मरूपी बंधु ही साथ जाता है, और जहाँ जाता है वहाँ रक्षा करता है, और शेष बंधु जिनके लिए पाप किया वे कोई यहाँ नहीं आये और उन पापों का फल अकेला ही भोगना पड़ रहा है । मनुष्यों को यह बहुत आवश्यक है कि अपने परिणामों में क्रूरता न लावें, और किसी दूसरे को सताना, धोखा देना, झूठ बोलना या कोई छल करना, इन बातों में लगे तो ये बातें तो बड़ी दुःखदायी हैं । थोड़ासा लाभ भी समझते हैं, मगर उनके फल में नरक गति में दुःख भोगना होता है । नरक गति यहीं है वास्तव में । जिनेंद्र के कहे हुए वचन कमी झूठे नहीं होते । जब उन्होंने बताया 7 तत्व 9 पदार्थ वस्तुस्वरूप आत्मधर्म मोक्षमार्ग संसारबंधन आदिक के उपदेश जब उनके यथार्थ सत्य उतरे हैं तो उन्होंने जो-जो भी उपदेश किया है वे सब यथार्थ हैं । अब यह रचना परोक्षभूत है । स्वर्गों को रचना बिल्कुल परोक्ष है इंद्रियों से परे है, नरकों की रचना भी इंद्रियाँ जान नहीं सकतीं तो उनके जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है, और हम ऐसा सोचें कि जो चीज हमें नहीं दिखती है वह चीज है ही नहीं तो यह बात कोई ठीक माने नहीं रखती । चीजें तो बहुतसी यहाँ की भी नहीं दिखती, पीछे दिखती, पर मानते हैं कि ये हैं । तो अरहंतदेव के शासन में जो नरक और स्वर्गो की रचना का वर्णन है सो देखो समस्त ग्रंथों में एकसा वर्णन है और अकेले-अकेले के माप का वर्णन
है, वह वर्णन यथार्थ है । नरक भूमि है, वहाँ जीव को पापोदय में जन्म लेकर दुःख भोगना पड़ता है । जिन लोगों के लिए पापकर्म किए जाते हैं वे कोई वहाँ साथी नहीं बनते । वह नारकी विचार करता है कि यह धर्म ही मेरा बंधु है, वही मेरा रक्षक है ऐसे धर्मरूपी बंधु को मैंने पहिले पोषा ही नहीं, उसका पालन ही नहीं किया और जिनको मित्र समझा उनमें से कोई यहाँ साथ नहीं आया । नारकी जीव ऐसा विचार रहा है । धर्म नाम है अपने आपके असली स्वरूप का जानना और ऐसी प्रतीति रखना कि यह मैं हूँ अन्य कुछ नहीं हूँ, यही मेरा स्वरूप है, अन्य कोई चीज मेरी वस्तु नहीं है, मैं चैतन्यमात्र हूं, ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित हूँ, देह से भी न्यारा हूँ, निर्लेप हूं, ऐसा ज्ञानानंदमात्र मैं हूँ । इस मेरे का दुनिया में और कुछ नहीं है, देह भी नहीं, घर भी नहीं, लोग भी नहीं, इज्जत पोजीशन आदि ये सब चीजें भी नहीं । मैं तो एक ज्ञानानंदस्वरूप हूं इस प्रकार की प्रतीति करना, ऐसा ही ज्ञान बनाना, और ऐसा ही जानकर पर की उपेक्षा कर के अपने आप में रत होना यही धर्म है और इस धर्म का लक्ष्य कर के फिर जो कुछ भी इस धर्म की उपासना में प्रवृत्ति की जाती है वह सब व्यवहारधर्म है । जिन्होंने धर्म का साधन किया, धर्म का शरण गहा उनका तो उद्धार हुआ और जो विषयों की उपासना में रहे वे संसार में घूमते ही रहे । नारकी जीव विचार कर रहा है कि मैंने धर्म नहीं पोषा इस कारण नरकभूमि में आकर ये दुःख सहने पड़ रहे हैं । संसार दुःखमय है पर यह मोही प्राणी उन पंचेंद्रिय के विषयों में ही रत होकर सुख मान रहा है, कभी कोई जरा भी कष्ट आया तो उसमें झट वह घबड़ा जाता है । इस मोही जीव के दो प्रकृतियाँ पड़ी हैं―एक तो विषयों में सुख मानना और किसी भी प्रकार का क्लेश आये तो उसमें बड़ा दुःख अनुभव करना । वह यह नहीं सोच सकता कि पशु पक्षियों के भवों में, नारकों के भवों में कितने कठिन-कठिन दुःख हैं, उन दुःखों के आगे इस मनुष्यभव का कौनसा दुःख है?