वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1744
From जैनकोष
किमत्र बहुनोक्तेन जन्मकोटिशतैरपि।
केनापि शक्यते वक्तुं न दुःखं नरकोद्भवम्।।1744।।
नरक दुःखों की वचनागोचरता―आचार्यदेव कहते हैं कि बहुत कहने से क्या लाभ? अर्थात् थोड़े में ही बहुत समझ लेना चाहिए कि नरकों में उत्पन्न हुए जो दुःख हैं उनको कोई करोड़ों जिह्वावों द्वारा भी नहीं बखाना जा सकता है । वे नारकी जीव एक दूसरे को मारते हैं, घात करते हैं, पर क्रूर वचन कहकर घात करते हैं, ऐसे क्रूर वचन कि जिन वचनों का ही घाव बहुत तीक्ष्ण हो जाता है । मर्मभेदी वचनों का भी दुःख सहे और मन में तो तड़फन होती ही है उसका दुःख सह सकें, और शारीरिक दुःख अनेक हैं वे दुःख सहे । तो ऐसे जो दुःख नरक में सहे जाते हैं उन दुःखों का वर्णन करने के लिए कोई समर्थ नहीं है । ऐसा दुःख इस जीव को अनेक बार सहना पड़ा लेकिन इस मनुष्यभव में कभी कोई दुःखी होता है तो उसे बहुत बड़ा दुःख मानता है । यह सुधि नहीं करता कि इससे भी अनंत गुने दुःख हमने नरकों में भोगे, निगोद में भोगे, अन्य पर्यायों में भोगे, ये दुःख कोई कठिन दुःख नहीं हैं ।