वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1743
From जैनकोष
न सौख्यं चक्षुरुन्मेषमात्रमप्युपलभ्यते।
नरके नारकैर्दीनैर्हन्यमानै: परस्परम्।।1743।।
नरकों में क्षणमात्र भी साता का अभाव―नरक में नारकी जीव परस्पर एक दूसरे को मारते हैं, सो वे दीन नारकी एक पलक मात्र मुख को नहीं प्राप्त कर सकते । निरंतर छेदना, वेदना, अग्नि में गिरा देना, गर्म तेल की कड़ाहों में गिरा देना, कोल्हू में पेल देना, करौतो से काट डालना, नाना तरह के नारकी जीव वहाँ त्रास दिया करते हैं । उनको कोई सहाय नहीं हो पाता । कोई नारकी किसी को आक्रमण से बचा दे ऐसा वहाँ प्रेम बिल्कुल नहीं है । जैसे यहाँ मनुष्यों में किसी मनुष्य पर कोई वार करता हो तो दूसरा कोई मनुष्य उस वार को रोक देता है, इस तरह का प्रेम करने वाला उन नरकों में कोई नहीं है । हों केवल जिन्होंने तीर्थकर प्रकृति का पहिले बंध किया था क्षयोपशम सम्यक्त्व में और फिर वह नरक में पहुंचा, अथवा क्षायक सम्यग्दृष्टि भी पहिले नरक में उत्पन्न हो सकता है । यदि पहिले नरक की आयु बाँध ली हो ऐसा कोई हो यह तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है उन नारकियों के जिनके गर्भ में आने से 6 महीना पहिले देव जाकर एक कोट रच देते हैं जहाँ वे नारकी सुखपूर्वक रहते हैं । अन्यथा यह बड़े असमंजस की बात होगी कि यहाँ तो गर्भ में आने से 6 महीना पहिले रत्नवर्षा हो रही हो और जिस जीव की खुशी में रत्नवर्षा हो रही हो वह जीव नरक में कूदता फांदता हो तो ऐसा ही प्राकृतिक नियम है कि 6 महीना पहिले नरकों में देव जाकर एक कोट रच जाते हैं जिससे तीर्थकर होने वाला नारकी वहाँ सुखपूर्वक रहता है । इसके अलावा वहाँ और कोई खैर नहीं है । निरंतर नाना प्रकार के त्रास मिलते हैं । तो उस नारकी जीव ने जिसने पूर्वभव में तीर्थकर प्रकृति का बंध किया था और नरक आयु का भी बंध किया था, तीर्थंकर प्रकृति के बांधने वाले वे जीव नरक में तो उत्पन्न होते, अब नरक से निकलकर मनुष्य होकर तीर्थंकर होकर उसी भव से मोक्ष जायेंगे । जो पंचकल्याणकधारी तीर्थंकर होते हैं वे या तो स्वर्ग से आकर होते हैं या नरक से अन्य भवों से आकर नहीं होते । जो पुरुष क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि हैं उसने पहिले सम्यक्त्व से पहिले नरक-आयु का बंध कर लिया हो, बाद में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो जाय और तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी कर ले ऐसा पुरुष मरते समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से तो छूट जायगा और नरक में उत्पन्न होगा और अंतर्मुहूर्त के लिए तीर्थंकर प्रकृति का बंध रुक जायगा । तीर्थंकर प्रकृति निरंतर बंध वाली प्रकृति है । वह बंधती है तो बराबर बंधती चली जाती है जब तक उसका गुणस्थान पूरा न हो । वह क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि था तो मरण के समय में तीर्थंकर प्रकृति का बंध रुक जायगा और नरक में जन्म लेने के बाद भी वह अंतर्मुहूर्त तक व्रतपूर्ण नहीं होता है और तीर्थंकर प्रकृति न बँधेगी इन दो अंतर्मुहूर्त के बाद, फिर तीर्थंकर प्रकृति नरक में भी बराबर बंधती रहती है और जिसने पहिले नरक आयु का बंध किया, पीछे क्षायक सम्यक्त्व हुआ और क्षायक सम्यक्त्व की स्थिति में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया उनके सम्यक्त्व न छूटेगा । मरण समय भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध रहेगा और नरक में उत्पन्न होते समय भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध बराबर होगा; लेकिन ऐसा जीव सिर्फ पहिले ही नरक में जाता है और पहिले नरक के नीचे सम्यग्दृष्टि का उत्पाद नहीं है अर्थात् सम्यक्त्व रहती हुई अवस्था में रहता हो तो वह पहिले नरक से नीचे नहीं जाता है ।