वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1746
From जैनकोष
वुभुक्षा जायतेऽत्यर्थं नर के तत्र देहिनाम ।
यां न शामयितुं शक्त: पुद्गलप्रचयोऽखिल: ।।1746।।
नरकों में क्षुधा की तीव्र वेदना―उस नरक में नारकी जीवों को ऐसी कठिन भूख लगती है कि समस्त पुद्गलों का समूह भी खा ले तो भी उनकी भूख का शमन करने में समर्थ नहीं है । भूख ही तो है । संभावना में ऐसा कह रहे हैं कि तीन लोक के सारे पुद्गल भी खा लें तो भी भूख नहीं मिट सकती । अभी तक तो तीन लोक के अनाज की ही बात कह रहे थे अब तो पुद्गलों की बात कह रहे हैं । इसमें उन नारकियों की वेदना बतलायी जा रही है कि उनको क्षुधा की कितनी तीव्र वेदना सहनी पड़ती है । क्षुधा की वेदना बड़ी वेदना है । क्षुधा की वेदना न हो तो यहाँ कोई मनुष्य किसी दूसरे की पूछ ही न करे । कोई व्यवस्था ही फिर न बन पाये । घर में सभी लोग व्यवस्था पूर्वक रहते हैं इसमें मुख्य कारण क्षुधा की वेदना है । कभी कोई विवशता हो जाय, भोजन न मिले, किसी फंदे में पड़ जाय तो उस समय देखो उस भूखे व्यक्ति का कैसा बुरा हाल होता है, और लोग तो भूखे नहीं हैं फिर भी अनेक बार कुछ न कुछ खाते पीते ही रहते हैं । उनका वह शौक है, नहीं तो कोई पुरुष यदि भूख आने पर ही खाने का भाव रखता है तो ऐसी अधिक से अधिक दो बेलायें हो सकती हैं । मगर स्थिति ऐसी है कि चाहे खूब खा पीकर चंगे मंगे होकर निकले हों पर कोई चाट चटपटी वाला दिख जाये तो आने दो आने की चाट खाने भर को पेट में जगह निकल ही आती है । तो बहुत से लोग खाने के शौक से भी बार-बार कुछ न कुछ खाते पीते रहते हैं, पर इस तरह की प्रवृत्ति से ऐसा कर्मों का बंध होता है कि जिससे क्षुधा का दुःख लंबा ही होता चला जाता है, उन नारकियों को इतनी कठिन भूख लगती है ।