वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1747
From जैनकोष
तृष्णा भवति या तेषु वाऽवाग्निरिवोल्वणा ।
न सा शाम्यति नि:शेषपीतैरप्यंबुराशिभि: ।।1747।।
नरकों में तीव्र तृषा की वेदना―उन नारकी जीवों की तृषा भी बड़वाग्नि के समान अत्यंत तीव्र होती है । ऐसी तीव्र होती है कि सारे समुद्र का पानी भी पी लें तो भी तृषा नहीं मिट सकती । यह संभावना में वेदना का स्वरूप कहा जा रहा है, और यह संभावना असत्य नहीं है । जैन शासन में जो कुछ भी देते हैं संभावना उपमा आदिक वे सब यथार्थ देते हैं । उपमा भी एक संभावना है । जैसे पल्यों का प्रमाण बताया है―हजारों लाखों, करोड़ों की बात क्या, अनगिनते वर्ष लग जाते हैं, इतना है पल्य के समय का प्रमाण । उसे और कैसे बताया जाय? जिसकी गिनती नहीं उसे उपमा द्वारा बताया गया है । संभावना द्वारा बताया गया है कि दो हजार कोश का लंबा चौड़ा गहरा गड्ढा हो, उसमें ऐसे पतले-पतले छोटे-छोटे बाल के टुकड़े डाले जायें कि जिनका दूसरा टुकड़ा न हो सके, उस गड्ढे को खूब भर दिया जाय और उस पर हाथी घुमाकर खूब ठसाठस भर दिया जाय, फिर सौ-सौ वर्ष बाद एक-एक बाल को निकाला जाय । यों सारे बालों को निकालने में जितना समय लगे उसे कहते हैं व्यवहारपल्य । पहिले तो यही देख लो व्यवहार पल्य में ही अनगिनते वर्ष हो गए, फिर उससे असंख्यातगुने समय का नाम है उद्धारपल्य, इससे असंख्यात गुणे समय का नाम है अद्धापल्य । तो उसे अनगिनते समय को बताने का साधन उपमा और संभावना है । तो ये सारी उपमायें और संभावनाएँ सही हैं । ऐसे ही जंबूद्वीप का प्रमाण बताया कि इतना लंबा चौड़ा जंबूद्वीप है, उससे दूने-दूने और-और अनेक द्वीप हैं, उन सभी समुद्रों का जल वे नारकी पीवे तो भी उनकी तृषा नहीं बुझ सकती, इतनी कठिन तृषा की वेदना उन नारकी जीवों के होती है ।