वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1750
From जैनकोष
यातनारुक्शरीरायुलेश्या दु:खभयादिकम् ।
वर्द्धमानं विनिश्चयमधोऽध: श्वभ्रभूमिषु ।।1750।।
अध: अध: नरकों में तीव्रातितीव्र वेदना और उनसे बचने का उपाय―उन नरक की भूमियों में पीड़ा, रोग, शरीर, आयु, लेश्या, दुःख, भय ये सब नीचे-नीचे नरकों में बढ़ते हुए चले गए हैं, पहिले नरक से दूसरे नरक में अधिक हैं, दूसरे से तीसरे में, तीसरे से चौथे में, चौथे से 5वें में, पांचवे से छठे में और छठे से सातवें में । इस क्रम से अधिक-अधिक बढ़ते चले जाते हैं । ऐसे नरकों में यह जीव अपना जन्म पापकर्मों के उदय से लिया करता है । तो वे पापकर्म न बनें, परिणाम स्वच्छ रहें, पापों से विरक्ति रहे, संयम का अनुराग रहे ऐसी मनुष्यों की चर्या होनी चाहिए अन्यथा इसी प्रकार दुर्गतियों में जन्ममरण लेना ही उनका फल है । इनसे बचने के लिये मनुष्य को धर्मध्यान में प्रयत्न करना चाहिये । धर्म चार प्रकार के होते हैं―आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । ये चारों धर्मध्यान सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के होते हैं, फिर भी मुख्यता की अपेक्षा आज्ञाविचय धर्मध्यान तीसरे गुणस्थान से शुरू मानते हैं । अपायविचय धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से मानते हैं, विपाकविचय धर्मध्यान 5वें गुणस्थान से मानते हैं और संस्थानविचय धर्मध्यान मुनियों के मानते हैं । यह मुख्यता की अपेक्षा है। संस्थानविचय का अर्थ है लोक के आकार का विचार करना। लोक में कहां-कहाँ कैसी-कैसी रचनाएं हैं उनका चिंतन करना और समय कब से क्या चला आया है और कौन-कौन कब होते हैं उनके चारित्र का चिंतन यह सब संस्थानविचय धर्म ध्यान है । जिस उपयोग में लोक के आकार की रचना की बात बनी रहती है उसमें वैराग्य का ज्यादा वास होता है, जो लोग छोटी सी भूमि में, जरा से क्षेत्र में अपना परिचय रखते हैं और आत्मीयता का व्यवहार करते हैं उनके राग बढ़ता है ।
संस्थानविचय धर्मध्यान में वैराग्यवर्द्धक रचनापरिचय―लोकरचना के चिंतन में इस समय अधोलोक का चिंतन चल रहा है । अधोलोक में 7 नरकों की रचना है । जो मनुष्य तिर्यंच पाप करते है वे मरकर नरक में जन्म लेते हैं । उन नरकों में उत्तरोत्तर नीचे-नीचे नरकों में अधिक-अधिक वेदना है । ऊपर के नरकों में गर्मी और नीचे के नरकों में ठंड की वेदना है । गर्मी की वेदना से ठंड की वेदना अधिक मानी गयी है । ऊपर के नरकों से नीचे के नरकों की जमीन को छूने से भी बड़ा दुःख है । नीचे के नरकों मे अधिक बार नारकी जमीन पर उछलता है । उत्तरोत्तर नीचे के नरकों में नारकियों के शरीर में रोग की बहुलता है । यद्यपि नारकियों का वैक्रियक शरीर है मगर वह दुःखदायी शरीर है, अतएव उन शरीरों में रोगादिक ही बसते हैं । इन नारकियों के शरीर की लंबाई इस प्रकार से है―7 वें नरक के नारकियों का 500 धनुष का शरीर होता है, छठवें नरक में 250 धनुष का शरीर होता है, 5वें नरक में 125 धनुष का, चौथे नरक में 62।। धनुष का, तीसरे नरक में 31। धनुष का, दूसरे नरक में 15 धनुष 3 हाथ का और पहिले नरक में 7 धनुष 1।। हाथ का शरीर होता है । तो नीचे के नरकों के शरीर बड़े-बड़े हैं, उनकी आयु भी उत्तरोत्तर अधिक है । पहिले नरक के नरकों की आयु अधिक से अधिक 1 सागर की है, दूसरे नरक की आयु 3 सागर है, फिर 7, 10, 17, 22 और 33 सागर की आयु 7 वें नरक में है । उन नरकों में इतने घोर दु:ख हैं और इतनी लंबी उनकी स्थिति है । दुःख डर सभी उत्तरोत्तर अधिक बढ़ते गए । नारकियों के इन दुःखों का चिंतन कर के ज्ञानी जीव संसार शरीर भोगों से और अधिक विरक्ति प्राप्त करते हैं।