वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1749
From जैनकोष
तिलादप्यतिसूक्ष्माणि कृतखंडानि निर्दयै: ।
वपुर्मिलति वेगेन पुनस्तेषां विधेर्वशात् ।। 1749।।
देह के तिल-तिल खंड किये जाने की वेदनायें―तिल-तिल के बराबर भी उन नारकियों के शरीर के टुकड़े कर दिये जाते हैं लेकिन वे सारे खंड फिर मिलकर शरीर बन जाते हैं । वहाँ इस ही प्रकार का विलक्षण कर्मोदय है । चारों गतियों के जीवों में नारकी ही ऐसे हैं जो मरना चाहते हैं, बाकी तीन गतियों के जीव मरना नहीं चाहते । पशु पक्षी मनुष्य और देव । देव तो मरना ही क्यों चाहेंगे बड़े सुख के साधन हैं पर अत्यंत हीन अवस्था का भी मनुष्य, तिर्यंच हो, रोगी दुःखी हो तो मरण तो वह भी नहीं चाहता लेकिन नारकी जीव मरना चाहते हैं । मेरी मृत्यु हो जाये, मैं यहाँ से छुटकारा पाऊँ । तो जो मरना चाहते उनका बीच में मरण नहीं होता और जो मरना नहीं चाहते उनका बीच में मरण भी हो सकता है । मनुष्य और तिर्यंच तो असमय में भी मर जाते हैं पर नारकी जीवों का असमय में मरण नहीं होता । तिल-तिल बराबर शरीर के खंड हो जायें तो भी वे खंड-खंड फिर मिलकर शरीररूप हो जाते हैं और फिर एक दूसरे को मरने मारने लग जाते हैं ।