वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1763
From जैनकोष
चंद्रकांतशिलानद्धा: प्रवालदलदंतुरा: ।
वजेंद्रनीलनिर्माणा विचित्रास्तत्र भूमयः ।।1763।।
देवभूमियों की शोभनता―इन देवों के निवास में ऐसी भूमि है, उनके रहने के भवन महलों में ऐसी फर्श है जो चंद्रकांतमणि अथवा मूँगा आदिक मणियों से रची हुई है । कहीं-कहीं हीरा नील आदिक नाना प्रकार के चित्र विचित्र रत्न जड़े हुए हैं ऐसे वहां के निवास स्थान हैं । पृथ्वी ही तो है, पर कहीं-कहीं की पृथ्वी प्रकृति से सुहावनी होती है, कहीं की पृथ्वी नुकीली, कड़ी पत्थरों वाली होती है । वहाँ के भवन बहुत कीमती पुष्ट मणि आदिक से रचे गए हैं । वहाँ के भवन फर्श वहाँ की और-और भूमियां नेत्रों को सुख देने वाली नाना मणि मूँगा आदिक से रची गई हैं । सुख के जो स्थानक होते हैं । वहाँ केवल इतनी ही सुविधा नहीं होती कि भूख प्यास न लगे और आराम से समय कटे, रहने के स्थान, और-और भी वचन-व्यवहार इज्जत सम्मान अपमान यश गुणमान आदिक अनेक बातें होती हैं । तो उनके पुण्य फल की बात चलती है । तो स्वर्गों में इस प्रकार की भूमि और ऐसे भवन हैं कि जो यहाँ बड़ा परिश्रम करके भी बनाये जायें चमक दमक वाले बड़े सुंदर से सुंदर तो ऐसी अच्छी सुंदरता ऊर्ध्वलोक में प्रकृत्या बनी हुई है । यह सब वर्णन चल रहा है संस्थानविचय धर्मध्यान का । एक ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष लोकरचना का विचार कर रहा है, जब लोक के विस्तार पर और रचना पर दृष्टि जाती है तो उस समय वह उपयोग रागद्वेष को पकड़े हुए नहीं रह सकता है । जैसे घर कुटुंब का और अपने परिचित क्षेत्र में जाने आने का रोक बन जाय, उसे पकड़े हुए रहे, यह बात नहीं बनती है क्योंकि इसकी दृष्टि लोक के एक विस्तार पर है । उन सब रचनावों को निरख रहा है और उन रचनावों के सामने वर्तमान समागमों को महत्व नहीं दे रहा । उससे भी बढ़ बढ़कर उत्तम-उत्तम स्थान लोक में हैं । जो विशेष विरक्त पुरुष होते हैं उनकी ही दृष्टि में यह सारा लोक काल ये सब रचनाएँ बन रही हैं । जो रागी द्वेषी पुरुष हैं, जिनका एक केंद्रित अपरिचित क्षेत्र है, जहाँ ही रमकर वे अपने में मौज मानते हैं उनकी निगाह में यह विस्तृत लोक नहीं रह पाता है । अगर यह विस्तृत लोक उनके उपयोग में रहे तो इस थोड़ी सी भूमिका, थोड़े से समागम का उसको आदर नहीं होता । तो संस्थानविचय धर्मध्यान में ज्ञानी योगी मुनि संत जन इस समय लोकरचना का विचार कर रहे हैं, जहाँ ऊर्ध्वलोक का वर्णन चल रहा है कि पुण्य फल यों-यों फलते हैं ।