वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1764
From जैनकोष
माणिक्यरोचिषां चक्रै: कर्बुरीकृतदिङ्मुखाः ।
वाप्य: स्वर्णांबुजच्छन्ना रत्नसोपानराजिला: ।।1764।।
देवभवनों को शोभनता―जहाँ की बावड़ियां ऐसी शोभायुक्त हैं, माणिक की किरणों के समूहों से दशों दिशायें अनेक वर्णमय चित्र विचित्र हो रही हैं तथा स्वर्णमय कमलों से आच्छादित हैं और रत्नमय सीढ़ियों से सुशोभित हैं । उन सीढ़ियों पर स्वर्णमय कलसों की रचना है और दूसरी ओर चित्र विचित्र मणि वहाँ रुचती हैं तो वह बावड़ी बहुत विशेष शोभा को प्राप्त होती है । उनकी रचनाएँ जगह-जगह हैं । जहाँ जावो तहाँ ही चित्त को हरने वाली हैं । यह पुण्यफल जहाँ विशेष फलता है वहाँ केवल एक दो बात विशिष्ट हों सो नहीं, किंतु रहने का घूमने का स्थान, आराम का स्थान, लोगों का समागम जिन भवनों में रहता है उनकी रचनाएँ सभी कुछ नेत्रों को हरने वाली हैं । पुण्यफल की बात ज्ञानी जीवों को नहीं रुचती है । वे उस पुण्य फल को कुछ महत्व नहीं देते हैं । उस पुण्यफल को वे ज्ञानी पुरुष सारभूत नहीं समझते हैं, मगर बताया जा रहा है कि पुण्यफल से जीव क्या पाते और पापफल से जीव क्या पाते हैं, और लोक की कैसी-कैसी रचनाएँ हैं जहाँ पुण्यफल और पापफल दिखाई दे रहे हैं । संस्थानविचय धर्मध्यान में यह ज्ञानी पुरुष लोक की रचना का चिंतन कर रहा है और अपने कर्मों को
काट रहा है ।