वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1765
From जैनकोष
सरांस्यमलवारीणि हसकारंडमंडलै: ।
वाचालैरुद्धतीर्थानि दिव्यनारीजनेन च ।।1765।।
वैमानिक देवस्थानों की मनोहारिता―स्वर्गो में सभी रचनाएँ नेत्र और मन को तृप्त करने वाली हैं । वह स्थान ही ऐसा एक पुण्यफल का धाम है कि जहाँ उत्पन्न होने वाले देव अपने मन माफिक समस्त मौज करते हैं । उन स्वर्गों में सरोवर भी हैं जिन में स्वच्छ निर्मल जल भरा हुआ है । सरोवरों में हंस वा कारंड आदिक उत्तम-उत्तम जाति के पक्षी भी उसके निकट शोभा बढ़ाते हैं । यद्यपि तिर्यंचों का विकलत्रयों का पंचेंद्रिय तिर्यंचों का वहाँ सद्धाव नहीं है फिर भी या तो वहाँ बहुत कलापूर्ण पक्षियों की मूर्तियाँ हैं प्राकृतिक अकृत्रिम अथवा
कुछ खोटे देव अपना दिल बहलाने के लिए अथवा अन्य पुण्यवंत देवों का मन प्रसन्न करने के लिए ऐसी विक्रिया कर के भी वहाँ शोभा बढ़ाते हैं । उन सरोवरों के निकट अनेक देवांगनाएँ अप्सरायें विहार करती हैं । जैसे कहीं किसी अच्छे स्थानपर बहुत सुंदर सरोवर हो तो बहुत से लोग अनेक महिलायें वहाँ जाकर अपने चित्त का परिश्रम दूर करती हैं, इसी प्रकार वे भी जो कुछ मानसिक खेद या श्रम होता है तो उसे दूर करती हैं और मन का सुख वहाँ प्राप्त करती हैं । यह सब वहाँ के पुण्य फल की बात कही जा रही है । यह पुण्यफल ज्ञानियों की दृष्टि में हेय है । क्या होगा ऐसे देवभव में जन्म लेकर कि जहाँ जीवन पर्यंत विषय साधनों में उपयोग रहे और आत्मा की सुध के लिए अवकाश न मिले । होते हैं कुछ विरले' देव सम्यग्दृष्टि लेकिन वे भी रागवश वैसे ही काम करते हैं । यह सब विषय साधनों का एक काम है । उन विषय साधनों के प्रसंग में जीव का हित नहीं है । इस जीव के साथ कोई शत्रु लगा है तो यह विषयकषाय का ही शत्रु लगा है । नीतिकारों ने जीव के 6 शत्रु बताये हैं―काम, क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह । यह बात बिल्कुल तथ्य की है । इस जीव को बरबाद करने वाला, संक्लेश देने वाला, संसार में भटकाने वाला बस यह विषय कषाय मोह का परिणाम है । दूसरा जीव या बाह्यपदार्थ का आना जाना संयोग वियोग―ये कोई दुःख के उत्पन्न करने वाले नहीं हैं, किंतु जीव में जो अज्ञानभाव बसा है और विषय कषायों से प्रेम बना है यह ही जीव को दुःख उत्पन्न करता है, ऐसे देवभव में भी कोई जीव गया तो वहाँ भी एक अनात्मतत्त्व का ही उपयोग प्राय: कर के गया ।