वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1771
From जैनकोष
लीलावनविहारैश्च पुण्यावचयकोतुकै: ।
जलक्रीडादिविज्ञानैर्विलासास्तत्र योषिताम् ।। 1771 ।।
स्वर्गलोक में विविध विलास―उन स्वर्गों में देवांगनाओं का विलास बड़ी चतुराई से भरपूर है । क्रीड़ा वन के विहारों से तथा पुष्पों के चुनने के कौतुक से तथा जलक्रीड़ा के विज्ञानों से बड़ी शोभा है । क्या करें वे देव? उन देवों का शरीर वैक्रियक है, नाना बाधावों से विमुक्त है सो वे अपने चित्त को ऐसे ही बहलाते हैं । जैसे कोई बेकार हो तो उसका मन नहीं लगता, वह यहाँ वहाँ डोलता फिरता है, इसी प्रकार वे देव अपने चित्त को बहलाने के लिए यत्र तत्र विहार करते हैं । अगर उनके चित्त में तृप्ति होती तो फिर जिस स्थान में वे एक बार दो बार विहार कर चुके हैं उन्हें बार-बार वहाँ विहार करने की क्या आवश्यकता है? वे अगर तृप्त होते तो क्यों वहाँ बार-बार विहार करते? वे प्राय: दुःखी रहा करते हैं । आनंद तो वास्तव में विषयातीत आत्मानुभव से ही प्राप्त होता है, और तो ये सब पंचेंद्रिय के विषय सुख आत्मा के प्रतिकार हैं । इन पंचेंद्रिय के विषय सुखों में तो वेदनाएँ ही बसी हुई हैं । ये सब पंचेंद्रिय के विषय विडंबनारूप हैं जिनको लोग बड़े महत्व की दृष्टि से देखते हैं । जब तक शुद्धोपयोग नहीं होता है शुभोपयोग साथ चल रहा है । ज्ञानी भी पुरुष हो, शुद्ध अनुभवी पुरुष भी हो लेकिन शुभोपयोग जब चलता रहता है तब उसके फल में मिलेगा क्या? स्वर्ग ही तो मिलेगा । तो ज्ञानी तो उसे विपदा समझता है, यह भी भोगना पड़ता है । उस ज्ञानी की दृष्टि तो सर्व कर्मों से विमुक्त एक आत्मस्वभाव की ओर रहती है, कुछ विकास की ओर रहती है, सांसारिक सुखों के लिए उस ज्ञानी की दृष्टि नहीं जगती है । लेकिन पुण्य का फल क्या है यह तो प्राप्त होता ही है । ज्ञानी हो तो, मिथ्यादृष्टि हो तो', जिसने भी मंद कषाय किया उसका पल उसे प्राप्त होता है । स्वर्गों में इस प्रकार के देव विहार अनेक कौतुक और अनेक तरह की जलक्रीड़ायें―इन सब में उनकी बड़ी चतुराई है और बड़ी चतुराई के साथ वे इन सांसारिक सुखों का भोग किया करते हैं ।