वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1772
From जैनकोष
वीणामादाय रत्यंते कलं गायंति योषितः ।
ध्वनंति मुरजां धीरं दिवि देवांगनाहता: ।। 1772 ।।
स्वर्गलोक में भोग, उपभोग, संगीत आदि की प्रचुरता―वहाँ स्वर्गों में वे देव देवियां मनचाहे भोग भोगा करते हैं और उनसे निपटने के पश्चात् वे अपने गानतान में रत हो जाते हैं । जैसे यहाँ भी धनी पुरुष और करते क्या हैं सिवाय एक शृंगार विलास गान तान के साधन के । ऐसे ही इन शृंगार विलास गान तानों में ही वे देव देवियां भी- अपना समय बिताते हैं । जैसे यहाँ धनिकों में बिरले ही पुरुष ऐसे होते हैं जो कि परोपकार करने की बात सोचा करते हों, प्राय: सभी लोग इन विषयसुखों में ही रत होकर अपना समय बिताते हैं, इसी तरह बिरले ही देव ऐसे ज्ञानवान होते हैं जो कि इन भोगसाधनों के बीच रहते हुए भी भोगसाधनों से अलिप्त रहा करते हैं । तो उन स्वर्गों में वे देवांगनाएँ संभोग के बाद वीणा लेकर सुंदर गान करती हैं, और मृदंग आदिक अनेक तरह के साधन वहाँ हैं उनके बजाती हैं, गाती हैं और नृत्य करती हैं । यों वे देव देवांगनाएँ विभोर रहा करते हैं । आत्मा की सुध आये ऐसा अवकाश बहुत कम है । देखो जहाँ क्लेश है वहाँ जीव के उद्धार का मौका भी है, और जहाँ क्लेश नहीं है, भोग-भोग ही रहते हैं वहाँ उद्धार का अवसर नहीं मिलता । जिन स्वर्गो में इष्टवियोग अनिष्ट संयोग, भूख प्यास, सुधा, तृषा एवं शारीरिक रोग आदि की कोई वेदना ही नहीं है तो वहाँ आत्महित करने का अवसर नहीं प्राप्त होता है । पुण्य के फल को पाकर तो वे देव उसी पुण्यफल में रत होकर अपने आत्महित की बात को भूल जाते हैं । एक यह मनुष्यभव ही ऐसा है कि जहाँ से यह जीव सच्चा ज्ञान बनाकर सर्व पर की उपेक्षा कर के अपना उद्धार कर सकने में समर्थ होता है ।