वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1773
From जैनकोष
कोकिला: कल्पवृक्षेषु चैत्यागारेषु योषित: ।
विवोधयंति देवेशांल्ललितैर्गीतनि:स्वनै: ।। 1773 ।।
स्वर्गलोक में भवन चैत्यालय उद्यान आदि में गीतों की झनकार―उन स्वर्गों में कल्पवृक्षों पर तो कोकिलायें सुंदर शब्दों से इंद्र को प्रसन्न करती हैं और चैत्यालयों मे देवांगनायें सुंदर गीतों से इंद्रों को आनंद प्रदान करती हैं । भवन में रहें, बन में जायें, चैत्यालय में जायें, जहाँ भी इंद्र और ये देव पहुंचते हैं वहाँ ही चित्त को हरने बाले सुंदर गीतों के शब्द सुनाई देते हैं । स्वर्गों में प्रत्येक बातें देखने की सुनने की, सूंघने की सभी पुण्य के फल रूप हैं और आनंद वैषयिक मौज प्रदान करती हैं, लेकिन इनमें रमने वाले अज्ञानी देव होते हैं । ज्ञानी देव ऐसे समागमों में रहकर भी उसमें उपेक्षाभाव रखते हैं । वे जानते हैं कि यह सब पुण्यफल है, औपाधिक चीजें हैं, बाह्य वस्तुवें हैं, इन सबसे मेरे आत्मा का कोई सुधार नहीं है । मैं आत्मा सबसे निराला केवल ज्ञानानंद स्वरूप हूँ, ये सब जड पदार्थ हैं । जड़ से अथवा किसी अन्य आत्मा से मेरे में कोई परिणति नहीं होती । मैं हीं खुद अपनी ही कला से परिणमता रहता हूं, औपाधिक परिणामों में परपदार्थ अवश्य निमित्त होते हैं ऐसा ज्ञानी देवों का सदा जागरण रहता है और वे ऐसे पुण्य फलों में आसक्त नहीं होते और अपनी सुध बराबर बनाये रहते हैं ।