वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1775
From जैनकोष
पंचवर्णमहारत्ननिर्माणा: सप्तभूमिका: ।
प्रासादाः पुष्करिण्यश्च चंद्रशाला वनांतरे ।।1775।।
स्वर्गलोक में मणिमय प्रसाद सरस्तीर आदि की शोभा―उन स्वर्गो के बागों में 5 वर्णों के रत्नों से बने हुए 7-7 खंड के महल हैं और वाटिका तथा चंद्रशालायें अर्थात् प्रासादों के ऊपर जो कुछ महल जैसी रचनायें होती हैं वे सब वहाँ उत्तम रमणीक और शोभनीय हैं । ये सब अकृत्रिम रचनायें हैं । पृथ्वी का ही उस प्रकार का रूप है जो बडे बड़े प्रासाद ऊँचे-ऊँचे खंडों के अनेक खंड पाये जाते हैं । वह एक प्राकृतिक रचना है और फिर कल्पवृक्ष भी अनेक ऐसे हैं कि मनचाहे प्रासादों को प्रदान करने वाले हैं । वहाँ क्या कैसी रचना है, कैसे सुख के साधन मिलते हैं? वे सब अपनी कल्पना से बाहर की बातें हैं । पुण्यफल हैं । जब पुण्य का उदय होता है तो कैसे-कैसे सुख साधन कहाँ से प्राप्त हो जाते हैं, उनका कौन ओर-छोर जानता है ऐसे ही जब पाप का उदय आता है तो कब कहाँ से किस तरह क्या संकट आ पड़ता है, इसे भी कौन जानता है? यह संसार बड़ा विषम है । जैसे सुख दुःख के चक्र इस संसार में चल रहे हैं ऐसे ही ये पुण्य पाप के चक्र इस संसार में बराबर चलते रहते हैं । ज्ञानी पुरुष इस संसार की मनमोहक चीजों को निरखकर उनमें रति नहीं करते बल्कि वे उससे बचने का ही यत्न रखते हैं और जो विशिष्ट ज्ञानी हैं, विरक्त पुरुष हैं वे ऐसे परिग्रहों को त्यागकर अपने स्वरूप के ध्यान में मग्न रहा करते हैं । उन देवों में ये वैषयिक सुख हैं मगर आत्मीय सुख में प्रगति कर सकें ऐसा उनमें कोई साधन ही नहीं है । इसी कारण ज्ञानी देव इंद्रादिक होते हैं वे ऐसे प्रसंगों में जहां महापुरुष कर्मों को काटकर निर्वाण प्राप्त करते हैं उन प्रसंगों में वे अपने आपके भव पर बड़ा पछतावा करते हैं कि हाय मेरा क्या भव है जिस भव में संयम भी धारण नहीं किया जा सकता है ! ऐसे सुखों की ठाठ हो तो उससे लाभ क्या? यही बात इन मनुष्यों को भी विचारना चाहिए । अगर सुख के साधन मिल गए, कुछ अधिक धन वैभव बढ़ गया, कुछ ढंग के महल बन गए तो इससे इस आत्मा को लाभ क्या मिला? यह तो कुछ दिन यहां का निवासी है । पीछे तो इसे सब कुछ छोड़कर जाना ही होगा । उन स्वर्गो में नाना रत्नों जड़ित, नाना वर्णों से चित्रित अनेक खंड वाले प्रासाद हैं और उनकी रचनाएँ भी अपूर्व सुंदरता को पोषने वाली हैं ।