वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1803
From जैनकोष
एतत्कंदलितानंदमेतत्कल्याणमंदिरम् ।
एतंनित्योत्सवाकीर्णमेतदत्यंतसुंदरम् ।। 1803 ।।
दृश्यमान समागमों के प्रति देवों का विचार―तत्पश्चात् वह देव विचार करता है कि यह तो आनंद को उत्पन्न करने वाला कल्याण का मंदिर है । सभी कुछ तो उनकी दृष्टि में आ रहा है । चैत्यचैत्यालय आदि ये सब कल्याण के मार्ग हैं, सुंदर उत्सव रूप और अत्यंत सुंदर हैं, वहाँ स्वर्गों में समारोह की बड़ी प्रचुरता रहती है । जीवन में भी अनेक समारोह चलते हैं और जब कोई देव उत्पन्न होता है तो उसकी उत्पत्ति में भी समारोह चलता है । यहाँ जैसे कोई बालक उत्पन्न होता है तो उत्पन्न होने के समय पड़ोसी रिश्तेदार मित्र लोग भाई बंधु ये सब कैसी खुशी मनाया करते हैं, तो वहाँ स्वर्गो में जो देव उत्पन्न होते हैं उनकी प्रतिभा ऐसी महान है कि अन्य देव वहाँ आते हैं और खुशी मनाते हैं । आखिर वही देव कुछ ही क्षण में नवयौवन संपन्न होकर हम सबके साथ व्यवहार रखेगा, हम सबको मार्ग दिखायेगा, हम सब उसको इसी कारण बड़े एक गौरव की दृष्टि से देख रहे हैं इस प्रकार देव के चिंतन हुआ करते हैं ।