वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1804
From जैनकोष
सर्वर्द्धिमहिमोपेतं महर्द्धिकसुरार्चितम ।
सप्तानीकान्वितं भाति त्रिदशेंद्रसमाजिरभ ।।1804।।
महिम स्थान पद आदि के विषय में देवों का विचार―वह देव यह विचार करता है कि यह स्थान समस्त ऋद्धि और महिमा सहित बड़े ऋद्धिधारक देवों से पूजनीय है । जिस स्थान पर उत्पन्न हुआ है उस स्थान की वार्ता अब उसे विदित होती जा रही है । उसको नाना परिचय प्राप्त होते जा रहे हैं । और वे स्थान तो बड़े-बड़े ऋद्धिधारक देवों के स्थान हैं, देवों से पूज्यनीय हैं । वहाँ 7 प्रकार की सेना है, उन देवों का वहीं नि:शंकतापूर्वक निवास होता है । वह वहाँ विचार करता है कि यहाँ की तो बड़ी उत्तम भूमि है । उस भूमि में किसी को किसी भी प्रकार की दुःख पीड़ा बाधायें नहीं हैं । ऐसे स्थानों के प्रति इसका परिचय बढ़ रहा है । यह सब कुछ चेतन अचेतन समागमों की रमणीकता निरखने के बाद फिर उस नवीन उत्पन्न जीव का कैसा चिंतन चलता है?