वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2041
From जैनकोष
इत्यादिसान्वयानेक पुण्यनामोपलक्षितम् ।
स्मर सर्वगतं देवं वीरममरनायकम् ।।2041।।
पुण्यनामोपलक्षित वीर देव का स्मरण―इस रूपस्थध्यान में उनके विशेषणों को कहकर अंतिम श्लोक में आचार्यदेव आदेश कर रहे हैं कि हे भव्यजनो ! अनेक पवित्र नामों से सहित वीर प्रभु का स्मरण करो । भगवान के जितने नाम हैं वे सब नाम एक पुण्यरूप हो गए । क्यों हो गए? यों कि अक्षरों में प्रभु वाचकता होने से पुण्यरूपता आ गई । जो महापुरुष पवित्र हुए हैं, वीतराग सर्वज्ञ हुए हैं, उनके साथ जुटे हुए नाम भी पुण्य हो गए हैं । तीर्थंकरों के नामों में भी तो एक साधारण शब्द ही हैं, पर इन नामों वाले तीर्थंकरों ने अपने आत्मा को पवित्र किया । सर्व दोषों से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त किया । तो ऐसे पवित्र आत्मा जिस देह में बस रहे उस देह का नाम भी पवित्र हो गया । प्रभु अनेक पवित्र नामों से सहित हैं । लोग भी तो अपने बच्चों के नाम महापुरुषों के नाम पर रखने की उत्सुकता रखते हैं, और जब नामकरण की विधि होती है तो अनेक नाम वे ही रखे जाते हैं जो महापुरुष के हुए, उनमें से जो एक नाम आ जाय, कोई उठा ले, या जिस किसी भी विधि से वह नाम उनका रख दिया जाय । तो जिस नाम के रखने में भी लोग बड़ा गौरव समझते हैं उस नामधारी तीर्थंकर कितने विशुद्ध प्रभु थे, इसका भी अंदाज कर सकते हैं । अनेक पुण्य नामों से सहित वे शरणागत देव, जो देवों के नायक हैं, सर्व जगत के नेता हैं ऐसे वीर प्रभु को हे भव्य पुरुषो ! स्मरण करो ।
स्वपरप्रभुतास्मरण―भैया ! काम दो ही तो करने के मुख्य हैं―एक तो भजन और एक आत्मस्मरण । और तीसरी बात कहाँ से लायें? सारभूत बात इतनी ही है । अन्यत्र सभी जगह शरण सोच सोचकर, शरण की आशायें कर करके बहुत-बहुत धक्के खाये । उन सभी अनुभवो से भी इसी निर्णय पर आना पड़ता है कि जगत में शरण बाहर में कहीं कुछ नहीं है । अपना शरण तो एक प्रभु भजन और अपने ही आत्मगुणों का स्मरण है । जिस क्षण अपना उपयोग आत्मस्वरूप के स्मरण में लगे वह क्षण धन्य है । यहाँ से हटकर बाहर में, विषयों में, पापों में, मौजों में जाने से तो कुछ भी लाभ न होगा । तो यह ही अपना निर्णय रखो कि कर्तव्य तो हमारे ये दो ही हैं―व्यवहार और निश्चय, बाह्य और अंतरंग, प्रभु भजन और आत्मस्मरण ।