वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2042
From जैनकोष
अनन्यशरणं साक्षात्तत्संलीनैकमानस: ।
तत्वस्वरूपमवाप्नोति ध्यानी तन्मयतां गत: ।।2042।।
ज्ञानपुंज प्रभु की अनन्यशरणता से प्रभुत्वलीनता―भगवान का स्वरूप एकदम सीधे ज्ञानपुंज रूप में निहारना चाहिए । एक दृष्टि से निहारें तो उस दृष्टि से कि जहाँ ज्ञान को निहारा जा रहा है और ज्ञानरूप में ही देखा जा रहा है तो प्रभु के ध्यान में फिर यह भक्त तल्लीन हो जायगा, अन्य रूपों में ध्यान करने पर ऐसी लीनता न आयगी । मानो प्रभु को यों देखा एक विशिष्ट मनुष्य की भांति हाथ पैर, उन मुद्रावों में चलना, विहार करते हुए, वैसा आसन माड़कर योगमुद्रा में, किसी भी रूप में प्रभु को देखा, तो इस बाह्य निरखन में प्रभुत्वलीनता न आवेगी । उस प्रभु के जो और गुण हैं आनंद शक्ति आदिक उनको भी अगर हम देखें तो भी उसमें वह लीनता न आयगी जैसी लीनता हम भगवान को मात्र ज्ञानस्वरूप देखें, ज्ञान का पुतला, ज्ञानपुंज, ज्ञान ही ज्ञान का जहाँ प्रसार है, मात्र वह शुद्ध ज्ञान, वह प्रभु है, ऐसा जब हम उस ज्ञानस्वरूप प्रभु को निरखेंगे, तो प्रभुत्व में लीनता आवेगी । जो योगी उसमें ही एक लीन चित्त वाला हो जाता है, फिर वह अनन्य शरण होकर तन्मयता को प्राप्त होता है ।
परमज्ञानज्योति की अनन्यशरणता का औचित्य―जब संसार के सारे नटखट देख लिए जाते हैं, यहाँ सार कुछ नहीं, शरण कुछ नहीं, सब विडंबनायें हैं, सब मोहांधकार है, सब मोह की नींद का स्वप्न है, यों जब इस स्पष्टता का परिचय होता है तो फिर यह भव्य पुरुष या तो अपने आपमें बसे हुए ज्ञानमय पदार्थ का सहारा लेता है या प्रभु को अपना अनन्य शरण बनाता है । तो जो योगी इस ज्ञानज्योति प्रभु के चित्त में एक चित्त होकर लीन होता है वह अनन्य शरण होता हुआ ध्यान से परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है । आत्मा का हित परमात्म- स्वरूप में है, अन्यत्र नहीं है । भोगविषयों में प्रीति है, नामवरी में, विषयसाधनों में चित्त लगता है, इनमें ही मौज माना जाता है सो ठीक है, उदय है पुण्य का, मान ले मौज, किंतु यह न भूलना चाहिए कि ये भोगसाधन जिनमें अभी मौज माना जा रहा है, बड़े महंगे पड़ेंगे । ये भोगने में तो बडे आसान लग रहे हैं पर इनका फल बड़ा कटुक है । यहाँ कोई भी पदार्थ प्रीति के लायक नहीं । एक स्वरूप को ही अपना शरण मानकर उसमें ही लीन हों तो उससे लाभ मिलता है ।