वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2203
From जैनकोष
स स्वयं यदि सर्वज्ञ: सम्यग्ब्रूते समाहित: ।
तथाप्येति न पर्यंतं गुणानां परमेष्ठिन: ।।2203।।
सर्वज्ञ के गुणों का सर्वज्ञ द्वारा भी अवक्तव्यता―सर्वज्ञ भगवान प्रभु-प्रभु के गुणों के जानते हैं, किंतु वे प्रभु भी यदि प्रभु के गुणो को कहने बैठ जाये तो वे भी कहकर उसका अंत न कर सकेंगे । किसी नदी में जहाँ पानी नहीं रहा, वहाँ जितनी धूल पड़ी है, जितने छोटे-छोटे कण पड़े हैं उन सबको आप वहाँ खड़े हुए जानते हैं कि नहीं? और अगर पूछें कि बतावो वे कण कितने हैं? तो क्या आप उनकी संख्या बता सकेंगे? नहीं बता सकते, किंतु जानते सब हैं । तो सर्वज्ञ मैं प्रभु में कितने गुण हैं, क्या वैभव है यह सर्वज्ञ के ज्ञान द्वारा गोचर है ।वे जानते हैं, किंतु वे भी यदि कहने लग जाये तो कह नहीं सकते । प्रयोजन यह है कि संसार की किसी माया में, वैभव में, विषयसाधनों में, किन्हीं में भी मोह मत बढ़ावो, व्यामुग्ध मत हो । कुछ बनता है मोह, पर जानते तो रहो कि ये सब भिन्न चीज हैं, भिन्न समागम हैं । यहाँ राग करने से पूरा न पड़ेगा । जो किया जा रहा है राग वह हमारी गल्ती है । किसी दिन तो वियोग होगा, और वियोग के समय में बहुत क्लेश भोगना पड़ेगा । तो इन प्राप्त समा-गमों के प्रति ऐसा ध्यान बनाये रहो और अपने आपमें अपनी परख कर के अपने आपके स्वरूप को निहार कर के तृप्त रहो, सुखी रहो । बस वही वास्तविक अमीरी है । इस उपाय से प्रभुता प्राप्त कर लोगे और स्वयं जान जावोगे कि प्रभु का वैभव क्या है?
वास्तविक अमीरी―बाह्य चीजों में यदि अपना लगाव है तो चाहे राजा ही क्यों न हो फिर भी वह गरीब है । एक फकीर को कोई पुरुष एक पैसा चढ़ा गया, विचार किया कि यह पैसा मैं उसे दूंगा जो मुझे अत्यंत गरीब दिखेगा । बहुत ढूँढ़ा, पर कोई भी अत्यंत गरीब न मिला । एक बार बादशाह हाथी पर बैठा हुआ अपनी सेना सहित उसके पास से निकला वह किसी दूसरे राजा पर चढ़ाई करने जा रहा था । साधु ने और लोगो से जानकारी कर ली कि यह बादशाह दूसरे किसी छोटे राजा पर चढ़ाई करने जा रहा है, तो सोच लिया कि इससे गरीब और कौन हो सकेगा जो दूसरे निरपराध छोटे राजा का धन हड़पने जा रहा है । सोचा कि यह पैसा मैं इस बादशाह को दूंगा । जब पास में आया तो साधु ने उसकी झोली में वह पैसा फेंक दिया । बादशाह ने पैसा फेंकने का कारण उस साधु से पूछा । तो उसने बताया कि यह पैसा हमें किसीने चढ़ाया था, सो विचार किया था कि हमें जो सबसे अधिक गरीब दिखेगा उसी को यह पैसा दूँगा । तुम से गरीब मुझे कोई दिखा नहीं सो यह पैसा मैंने तुम्हें दिया । ....वाह मैं गरीब कैसे? मेरे पास तो इतनी सेना, इतना वैभव, इतना सब कुछ । ....अरे यदि आप गरीब न होते तो बेचारे निरपराध छोटे राजा का धन हड़पने तुम क्यों जाते ?....बादशाह के ज्ञान जगा और कहा―महाराज, आपके इस पैसे ने मुझे धनिक बना दिया । वहीं से वह बादशाह वापिस लौट आया । तो इस बात की चिंता छोड़ देनी चाहिए कि मेरे पास तो कुछ भी वैभव नहीं है । जो वैभव है वह भी जरूरत से अधिक है, ऐसा भाव बनायें ।
आत्महितनिर्णय―अरे इस वैभव की प्राप्ति करने के लिए यह जीवन नहीं पाया है ।यह जीवन पाया है-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र के पालन के लिए । दुनिया में हजारों लोग आये और अपनी-अपनी करतूत दिखाकर चले गए, केवल ग्रंथों में व इतिहास में उनका नाम शेष है । क्या है यहाँ? तो इस चिंता को दूर करें और जो मिलता है वह भाग्य से मिलता है । उसमें घर के सभी जीव का भाग्योदय काम करता है । तो फिर जो कुछ आय हो उसी में व्यवस्था बनाकर गुजारा चलाये और तृप्त रहें । भगवान की भक्ति कर के और अपने आपके वैभव को निहारकर । क्या दुःख है? विपदा तो यह है कि कहीं कुसंग न हो जाय, कहीं बुद्धि न फिर जाय । विपदा तो इसका नाम है । धन कम हुआ यह कोई विपदा नहीं हे । रही पोजीशन की बात । तो आत्मा का महत्व बड़प्पन तो आत्मा के विकास में है और बात में नहीं है, तो अपने वैभव को, अपनी ज्ञानशक्ति को, अपने ज्ञानपुंज को निरखिये और उसका निर्णय रखिये तो उससे आपकी सच्ची शोभा बढ़ेगी । बाहरी कपड़ों से, शृंगारों से इस अपवित्र देह की शोभा बढ़ायी तो क्या बढ़ाया? अपने आप में बसा हुआ जो ज्ञान है, गुण है, निधि है, परम शांति है उस स्वभाव निधि को निरखकर तृप्त होवो तो अपनी वास्तविक शोभा बढ़ेगी । तो एक इस अपने कारणपरमात्मतत्त्व के आलंबन से वे गुण विकसित होते है जिन गुणों को सर्वज्ञ प्रभु ही जान सकते हैं । वे सर्वज्ञ भी यदि उन गुणों को बताना चाहें तो उनका अंत न बता पायेंगे ।