वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 228
From जैनकोष
स्थितिजनन बिनाशालिडि्.गतैर्वस्तुजातै:
स्वयमिह, परिपूर्णोऽनादिसिद्ध: पुराण:।
कृतिविलयविहीन: स्मर्यतामेष लोक:।।228।।
प्रतिसमय परिणमते हुए लोक में एकमात्र साथी धर्म―इस लोक में इस प्रकार का स्मरण कीजिए कि यह लोक वातवलयों के भीतर स्थित है। यह लोक अनेक वस्तुओं के समूह से व्याप्त है। प्रत्येक पदार्थ जहाँ प्रत्येक समय बनता है, बिगड़ता है और बना रहता है। यह लोक अपने आप परिपूर्ण है, अधूरा नहीं है। ऐसा नहीं है कि किसी ने बनाया हो और कुछ अधूरा रह गया हो, सो नहीं है। यह समस्त सतों का समूह है इसलिए यह भी सत्रूप है। जो सत् होता है वह परिपूर्ण ही होती है। यह लोक अनादि से सिद्ध है। इस लोक को किसी ने बनाया नहीं, पुराण है, न इसकी उत्पत्ति होती है, न इसका विलय होता है, यह तो है चला आया है। जैसे ऋतुयें नई आती हैं पुरानी व्यतीत होती है। फिर भी जो ऋतुयें आती हैं वे नई-नई बन-बनकर आती हैं, इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ संसार में विनष्ट होता है, उत्पन्न होता है, प्रतिसमय नया-नया परिणमन इस लोक में होता है, कभी-कभी विचित्र परिणमन सा लगता है। कभी वैसी ही बात वर्षा से चली आयी है, इसमें विचित्र परिवर्तन नहीं मालूम होता, किंतु है प्रतिसमय परिणमता हुआ प्रत्येक पदार्थ, उन पदार्थों से भरा हुआ यह लोक है। यह लोक विश्वास के काबिल नहीं है। किस पदार्थ का शरण गहते हो कि शरण मिल जाय। ये सभी मोही जीव है, अतएव मोही जीव जिन-जिन बातों में लग रहे हैं दूसरे मोहियों को उन बातों में सार विदित होता है, पर वस्तुत: देखो तो सार कुछ नहीं है। सभी लोग वैभव की बढ़वारी में लग रहे हैं, लाख हो तो करोड़ों की चाह, करोड हों तो अरब की चाह। जगत में अगर इतना वैभव नहीं इकट्ठा कर सकते तो काहे का जीवन, ऐसा मानते हैं, किंतु सार कहीं नहीं है। मरण के बाद तो यहाँ का कुछ भी लगार साथ नहीं जाता है, लेकिन आत्मा का धर्म आत्मा का संस्कार ज्ञान की दृष्टि जैसे बनाते बने, अगर इसे पुष्ट कर लीजिए तो यह साथ जायेगा। यह संस्कार आगे भी काम देगा, पर यहाँ का वैभव एक अणुमात्र भी कान न देगा। लेकिन सब मोह है। सबको यह सुहाता है तो दूसरा कुछ विवेक भी करें, थोड़ा ज्ञान भी हो तो भी वह फिसल जाता है और ज्ञान की दृष्टि में अपने को नहीं लगा पाता है।
ज्ञानी की चाल से अज्ञानी सर्वथा विपरीत―ज्ञानी और अज्ञानी की चाल उल्टी ही हुआ करती है। लोग क्या करते हैं वही हमें करना चाहिए ऐसा विचार विवेकपूर्ण नहीं है। किंतु यथार्थ कर्तव्य क्या है? वह हमें करना चाहिए यह विवेकपूर्ण बात है। सबके समुदाय का नाम लोक है। हम आपको जितना समुदाय मिला है उतने को हम अपना लोक कह लें, हमारी दुनिया यह है। कहते भी हैं लोग। जितना कुटुंब हुआ, वैभव हुआ उस सबके संचय को कहते हैं कि हमारी दुनिया इतनी है, जिसे भी अपनी दुनिया माना, स्वरूपदृष्टि लगाकर देखो आत्मा का उसमें कुछ नहीं बसा हुआ है, रंचमात्र भी नहीं है। रही बात यह कि जब मनुष्य जीवन मिला है तो खाये बिना तो काम नहीं चलता, यह भी ठीक है, पर यह मनुष्य खाने के लिए ही तो नहीं कमाता, खाने के लिए ही तो कुछ नहीं करता, यह तो अपने शौक बढ़ाता है और नाना प्रकार के आरामों में रहें तो अपनी शान है, इस प्रकार का भाव बनाया है।
सात्विकता निराकुल होने में सहायक―पुण्य के उदय से आ जाय तो ठीक है, उसका बँटवारा कर लें। प्रथम तो कितना भी वैभव आये, अपना जीवन ऐसा सात्विक रहे जैसा कि अन्य लोगों का अपने से छोटे लोगों का करीब-करीब रहता है तो उसमें अनेक लाभ हैं, एक तो आकुलता नहीं होती, अधिक कमाने की चिंता नहीं होती। जब हम आवश्यकताएँ ही नहीं बढ़ा रहे हैं तो कमाने की चिंता क्या? दूसरे कदाचित् उदय ऐसा आया है कि स्थिति कम हो जाए तो उस स्थिति में इसे वेदना न होगी, अभ्यास बना हुआ है। तपश्चरण में और बात क्या सिखायी जाती है? लोग उपवास करते, पर्व के दिनों में बड़े सादे रहनसहन से रहते, यहाँ तक कि कुछ लोग बाल भी नहीं बनवाते, हजामत भी नहीं करवाते न चटक मटक के कपड़े पहिनते, न घर में अधिक बसते, बहुत सा समय मंदिर में गुजारते तो वह एक सात्विक वृत्ति का अभ्यास है तो जितना अपने को सात्विक प्रकृति से बना लिया जाय उतनी अपने को निराकुलता रहेगी।
व्यवसायों में उत्तम व्यवसाय―हिम्मत ऐसी होनी चाहिए। जब कभी विशेष सुविधायें हैं चलो उन सुविधावों को भोग लें, पर कभी न रहें तो उसमें भी प्रसन्न रह सकें। जैसे कुछ लोग तो ऐसे होते हैं कि जिन्हें हाथ पैर दबाये बिना चैन नहीं पड़ती और कुछ लोग तो ऐसे होते हैं कि हाथ पैर दब गए तो ठीक न दबे तो कुछ हरज नहीं, तो जिसे चैन नहीं पड़ती वह तो न दबने पर बेचैन हो जायेगा और एक ऐसा है कि जिसे कुछ भी बेचैनी नहीं होती। इसी तरह कोई ऐसे ही पुण्यवान हैं कि सुविधावों को भोगकर रहें पर कभी न रहें ये साधन तो उस स्थिति में परेशान हो जाते हैं और एक ऐसे हैं कि हल्की स्थिति हो जाने पर दु:खी न होगा, तो अंदाज कर लो कि इनमें भला किसे कहोगे? तो इस लोक में किसी भी समागम में विश्वास न करें, अपने आत्मा की पवित्रता पर विश्वास करें। सब वैभव जो कुछ मिलते हैं वे आत्मा की इस पवित्रता के लगाव से मिलते हैं। तो सबसे बड़ी भारी व्यवसाय तो अपने आपको पवित्र बनाये रहना है और पवित्र बनाये रहने के लिए आचार्यों के उपदेश पढ़ना, सुनना, विचारना, किसी भी प्रकार से दो वचन ज्ञान के पढ़ें तो वह तो लाभ की ही बात है। जब ज्ञान की दृष्टि बनती है तो सब कुछ उचित परिवर्तन हो जाता है और जब अज्ञान की दृष्टि बनती है तो क्लेश की परंपरा बढ़ती है तो कोशिश यह करना चाहिए कि दो एक बार उपदेश पढ़कर सुनकर दो एक बार धर्म की चर्चा करके, दो एक बार अच्छे साधु संतों की संगति में बैठकर किसी भी प्रकार अधिक से अधिक बार अपने ज्ञानस्वरूप की खबर हो सके, दृष्टि जग सके उस ओर झुकाव बन सके बस वह तो है उत्तम व्यवसाय।
आत्मा की निराकुलता का मार्गपना―लोग भले ही कहेंगे जो मोहीजन हैं कि इसके दिमाग में कुछ फितूर आ गया है क्या? जो अच्छे लोग होते हैं पेन्ट कोट वाले होते हैं वे तो ऐसा नहीं किया करते। भले ही मोहीजन इस प्रकार सोच लें पर सोचने दो, वे अपने रक्षक नहीं, वे अपने अधिकारी नहीं, उनके रखाये अपन रहते नहीं, अपनी दृष्टि से अपना सब परिणमन बनाना चाहिए। तो इस लोकभावना में यह बात बतायी गयी कि यह लोक जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों से भरा हुआ है।
एक ही जगह में सभी द्रव्य मौजूद हैं। इस लोक के प्रत्येक प्रदेश पर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल भी हैं। लोक में सभी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव को लिए हुए हैं और दूसरे के स्वरूप से भिन्न रूप से ठहर रहे हैं, क्षेत्र की अपेक्षा यद्यपि वह जगह जहाँ एक पदार्थ है वही सभी पदार्थ हैं, अनेक हैं लेकिन सब अपने-अपने स्वरूप को लिए रहते हैं। एक दूसरे के भिन्न रूप में ठहरे हैं, उन सब द्रव्यों में एक मैं आत्मद्रव्य हूँ। यह मैं अपने स्वरूप से हूँ और जितने भी पर हैं, चाहे वे पर जीव हों, पुद्गल आदिक हैं उन सबसे मैं जुदा हूँ। तब अन्य पदार्थों से ममत्व छोड़कर अपने आत्मा की भावना करना ही सच्चा व्यवसाय है। हम व्यवहार में रहते हैं तो व्यवहार में जो-जो कुछ भी प्रवृत्ति आती हैं, मिलती हैं उन सबका यही ज्ञान होना चाहिए तो हम एक निर्भय निराकुल और समाधान रूप बने रहेंगे। यों लोक का स्वरूप विचारने से परतत्त्वों से हटकर अपने आपकी ओर लगने की बात कही गई है।
धर्म भावना