वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 229
From जैनकोष
दुरंतदुरितारतिपीडिस्य प्रतिक्षणम्।
कृच्छान्नरकपातालतलाज्जीवस्य निर्गम:।।229।।
भावकलंक से पीड़ित जीव का दुर्गति से छूटने की दुर्लभता―इन बारह भावनाओं के प्रकरण में अब यह बोधि दुर्लभ भावना अंतिम भावना कही जा रही है। इसमें बोधि की दुर्लभता का वर्णन किया जायेगा। बोधि का अर्थ है रत्नत्रय। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का नाम है बोधि। यह बोधि अत्यंत दुर्लभ है, ऐसी बोधि की दुर्लभता की भावना कर रहे हैं। यह जीव अनादि काल से पापरूप बैरियों से निरंतर पीड़ित होता चला आया है। तो इस जीव का आदि स्थान तो निगोद है। जो आज सिद्ध हैं वे भी कभी निगोद में थे, हम आप भी जो मनुष्य हैं वे भी निगोद में थे, आदि स्थान निगोद है। तो इस जीव का निगोद से निकलना ही प्रथम कठिन है। यद्यपि निगोद जीव लोक में है सब जगह। जहाँ सिद्ध भगवान विराजे हैं वहाँ भी निगोद जीव हैं और नरक के नीचे भी निगोद जीव हैं, किंतु निगोद का स्थान करके नीचे बताया गया है। उसका मुख्य प्रयोजन यह है कि और और जगह तो विकलत्रय भी हैं और प्रत्येक स्थावर भी हैं बहुतायत से, लेकिन नरक के पाताल के नीचे वहाँ केवल निगोद जीव मुख्यता से पाये जाते हैं इसलिए उसे निगोद स्थान कहा गया है। तो उस स्थान की बात नहीं कह रहे हैं किंतु नित्य निगोद रूप पर्याय की बात कह रहे हैं। इस जीव का उस निगोद से निकलना ही कठिन है। निगोद निवास का अर्थ है, अनादि काल से जो निगोद रहे चले आये हैं, बीच में कभी उनकी निगोद पर्याय नहीं छूटी ऐसे जीव अब तक भी हैं।
उत्तरोत्तर त्रसपर्याय की प्राप्ति की दुर्लभता―जरा अपने आपकी जो आज उत्कृष्टता है उसकी तुलना तो करो, कितने जीवों से भले हैं। अनंतानंत जीवों से अच्छे हैं। अनंतानंत तो निगोद ही जीव हैं, उनकी तो कितनी विकट दुर्दशा है, फिर कीड़ा मकौड़ों को देखिये चीटियाँ किसी जगह दिख जाती हैं जिन्हें गिने तो लाखों मालूम पड़ें ऐसे उन कीड़ा मकौड़ों से तो हमारी आपकी स्थिति अच्छी है ना, प्रत्येक स्थावरों से तो हम आपकी स्थिति अच्छी है ना, पशुओं से तो हम भले हैं ना, मगर संतोष नहीं कर पाते। बैल, भैंसा जो गाड़ी में बोझ ढो रहे हैं, पिट रहे है उनसे तो हम आप बहुत अच्छे हैं, पक्षियों से भी अच्छे हैं, और अनेक मनुष्यों से अच्छे हैं। कोढ़ी हैं, रोगी हैं, निर्धन हैं, अनेक प्रकार के जीव हैं जो महा दु:खी हैं, उन दु:खियों से तो हम आप अच्छे हैं ना।
तृष्णा के कारण प्राप्त सुख भी दु:ख―इतनी तो अच्छी स्थिति है मगर जो दृष्टि तृष्णा की ओर लगी है तो जो आज अच्छी स्थिति मिली है उसका भी सुख नसीब नहीं होता। जैसे एक लाख का धन है उसमें एक हजार घट गए तो 99 हजार तो अभी भी हैं, मगर जो एक हजार घट गए उसकी ओर दृष्टि लगने से उसका विषाद होने से 99 हजार का भी आराम नहीं मिल रहा है, और एक मनुष्य जो खोंचा फेरकर गुजारा करता था 10, 5 रुपये की पूंजी से ही और उसके पास किसी तरह एक हजार रुपये हो गए तो वह तो अपने को बड़ा सुखी अनुभव करता है। तो हम आपकी स्थिति अनंतानंत जीवों से आज भली है, मगर कुटेव ऐसी बनी चली आयी है कि अपना इस स्थिति का भी उपयोग नहीं कर पाते।
विषय संस्कारों के छूटने पर ही धर्म की सुलभता―चलो जो है सो ही ठीक है, जो मिला है वही जरूरत माफिक काफी है, बल्कि जरूरत से भी ज्यादा है। अब कर्तव्य तो यह है कि अपने को ज्ञान में ढालें, शुद्ध आचरण में लगायें और धर्म से अपने को सुसज्जित बनायें जो कि भविष्य में भी हमें शरण होगा कर्तव्य तो यह है, पर यह जीव विषयवासना के संस्कार से कषायों के संस्कार से ऐसा नहीं कर पाता है। तो इस बोधि दुर्लभ भावना से मनुष्यभव की और रत्नत्रय की दुर्लभता बताकर यह ध्यान दिला रहे हैं कि जब इतनी उत्कृष्ट स्थिति पायी है तो अब विषय संस्कारों से छुटकारा पायें और धर्म में ही विशेष लगें तो इससे भी अधिक अच्छा फल प्राप्त होगा, यों इस बोधि दुर्लभ भावना में इस बोधि का रत्नत्रय का वर्णन कर रहे हैं।