वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 403
From जैनकोष
एकोद्विधा त्रिधा जीव: चतु:संक्रांतिपंचम: ।षटकर्म सप्तभंगोऽष्टाश्रयो नवदशस्थिति: ॥403॥
संसारी जीवों की नानाप्रकारता – यहाँ जीव एक प्रकार का है । सब जीवों का स्वरूप एक समान है । सभी चित्स्वभावी हैं । स्वरूप दृष्टि से किसी जीव में भी अंतर नहीं है । अब अंतर का करने का निमित्तभूत उपाधि की दृष्टि से उनकी स्थितियों को देखो तो जीव दो प्रकार के हैं – एक मुक्त जीव, एक संसारी जीव । तो मुक्त जीवों में तो भेदविस्तार है नहीं, भेदविस्तार संसार में है । संसारी जीवों की दृष्टि से भेद करें तो जीव दो तरह के हैं – एक त्रस और एक स्थावर । जीव जिस प्रकार हैं, जिस प्रकार वर्तते हैं उनको निगाह में रखकर वर्णन किया जा रहा हैं, उन्हें किन्हीं शब्दों में कह लो, पर जो है भी उसका कथन जिन शास्त्रों में है । जीव तीन प्रकार के भी हैं उन सब भेदों को इस तरह से बना लीजिए कि उस तीन प्रकार में सब संसारी आ जायें । यह आपकी मर्जी है कि किस तरह भेद बना लो, छूटना न चाहिए कोई संसारी । तो संसारी जीव एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय और सकलेंद्रिय यों तीन प्रकार के हैं । जीव चार प्रकार के भी किसी तरह से दिखाये जा सकते हैं – एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, संज्ञी, असंज्ञी । हाँ तो संख्या बन जाय और कोई छूटे नहीं इस दृष्टि से भेद बनाते जाइये । संसारी जीव 5 तरह के हैं – एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय । संसारी जीव 6 तरह के भी हैं । 5 स्थावर और एक त्रस । 7 भी हैं – 5स्थावर, विकलेंद्रिय, सकलेंद्रिय । 8 तरह के भी हैं – 5 स्थावर, विकलेंद्रिय, संज्ञी, असंज्ञी । जैसा कह रहे हैं ऐसे ही प्रकार हैं ऐसा नियम नहीं है । आप अपनी रुचि से भी बना सकते हैं पर छूटे नहीं । कोई संसारी के यों भेद बनावे – 5 स्थावर, तीन और एक एकेंद्रिय यों 9 भी हैं । संसारी जीव 10 भी हैं ― 5 स्थावर, तीन विकलेंद्रिय, संज्ञी और असंज्ञी । यों कितने ही भेद बनाएँ । समस्त जीव असंख्यात प्रकार के होंगे । और भाव की दृष्टि से भेद बना लें तो अनंत प्रकार के हो जायेंगे । इस प्रकार नानाप्रकार से जो जीव का फैलाव है वह सब एक अज्ञान से है, भ्रम से है, मोह से है, और इसी में यह जीव दुःखी होकर जन्म मरण किया करता है ।