वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 404
From जैनकोष
भव्याभव्यविकल्पोऽयं जीवराशिर्निसर्गज: ।मत: पूर्वोऽपयवर्गीय जन्मपंकाय चेतर: ॥404॥
संसारी जीवों में भव्य और अभव्य का भेद – यह जीवराशी स्वभाव से ही भव्य हो या अभव्य हो इस प्रकार दो विकल्पों में विभाजित है । भव्य तो अपवर्ग के लिए माना गया है और अभव्य जन्म पंक के लिए माना गया है, अर्थात् भव्य जीव का तो मोक्ष होता है और अभव्य जीव का संसार में परिभ्रमण ही होता है । भव्य शब्द का अर्थ है जो होने योग्य हो सो भव्य और अभव्य का अर्थ है जो होने योग्य न हो सो अभव्य । इन शब्दों में मोक्ष और संसार की बात नहीं पड़ी हुई है, शब्द में तो एक संकेत है । मोक्ष पाने योग्य हो सो भव्य और मोक्ष पाने के योग्य न हो सो अभव्य । शुद्ध होने के योग्य हो उसे भव्य और शुद्ध होने के योग्य न हो उसे अभव्य कहते हैं । भव्य का नाम होनहार भी है । यह बड़ा होनहार पुरुष है । भव्य का अर्थ है होने योग्य । अच्छे आचरण से सफलता की बात जिनमें हो उन्हें भव्य कहते हैं । तो संसारी जीवों में भव्य तो अभव्यों से अनंतगुने हैं । जितने अभव्य हैं उन से अनंत गुने भव्य हैं । अनंत भव्य हैं तो एक अभव्य है, यों समझिये । अभव्यों की संख्या बहुत कम है, इतने पर भी अभव्य अनंत हैं । तो स्थूल दृष्टि से ऐसा देखने में आना चाहिए इससे एक हिम्मत तो होनी चाहिए कि हम लोग अभव्य नहीं हैं । फिर भव्य का क्या अर्थ है, क्या लक्षण है, ये सब आगे बताये जायेंगे, पर बहुत भी संतोष की बात करना हो तो इतना ध्यान ले लीजिए – जिनकी धर्म में रुचि होती है वे भव्य और जानने की विशेष उत्सुकता हो तो यों समझ लीजिए कि एक सहज ज्ञायकस्वरूप के अवलोकन की अधिक जिज्ञासा हो वह तो भव्य ही है ।क्षण भर की गल्ती में महाबंध की नौबत – अहो, एक मिनट की गल्ती से यह जीव कहीं से कहीं पहुंचने का बंध कर सकता है । एक क्षण के मोह के परिणाम से यह जीव 70 कोड़ा कोड़ी सागर की स्थिति का मोहनीय कर्म बाँध लेता है । इतना बंधन हुआ एक क्षण की गल्ती में । सागर का तो बहुत ही विशाल परिमाण है, असंख्याते वर्ष हैं और ऐसे 70 कोड़ा कोड़ी सागर हुए । आजकल नरकगति में नीचे यानी उत्कृष्ट स्थिति के नरक में न जा सके ऐसा तो है, पर उत्कृष्ट बंध के संबंध में निषेध नहीं है । उसका कारण यह है कि नरक गति में जाने योग्य तीव्र पाप कार्य और तीव्र चिंतना किसी विशिष्ट संहनन वाले के हो पाती है, पर मोही की बात तो किसी भी संहनन का हो, तीव्र से तीव्र मोह कर सकता है । अन्य पापकार्यों के करने में जो शक्ति चाहिए पर मोह तो एक कायरता की बात है । उस में किसी भी संहनन वाले सभी जीव अधिक से अधिक मोह कर सकते हैं ।भव्यता का प्रकाश – तो जो जीव अपने आपको मैं सदैव सम्हाले हुए रहूं ऐसा अपना परिणाम बनाता है उस जीव की भव्यता निकट है और जो स्वच्छंद हो जाय, प्रमादी बन जाय उसका होनहार भला नहीं है । अपना यह ध्यान होना चाहिए कि अब कितना सा जीवन रह गया । इस थोड़े से जीवन में हम अपने आपके सहजज्ञानस्वरूप को अपने उपयोग में न सम्हाल सकें तो ये रहे सहे थोड़े जीवन के दिन जल्दी ही व्यतीत हो जायेंगे । तब एक पछतावा भर रह जायेगा । अथवा पछतावा के लिए भी बुद्धि चाहिए । कहो इतनी भी बुद्धि न मिले कि पछता सके । ये कीट पतंगे स्थावर क्या पछताते हैं ? तो समझ लो भैया ! बड़ी जिम्मेदारी का यह जीवन है, पुण्य का कुछ ठाठ है, सारी बातें सरल सी लगती हैं, जैसा चाहे इंद्रिय का विषय सेवन करें, जैसा चाहे दूसरों के प्रति व्यवहार करें, बल है, सामर्थ्य है, जो मन आये सो करे लेकिन यह स्वच्छता बहुत विडंबना का कारण बनेगी । वर्तमान शक्ति के आधार पर इन व्यावहारिक उल्झनों के करने का फैसला न करें किंतु मुझे एक शाश्वत शांति चाहिए, उसके प्रकरण में हमें अपना निजी कैसा वातावरण रखना है इस दृष्टि से निर्णय करना चाहिए । भव्य जीव मोक्ष के लिए बताया तो है, पर सभी भव्य मोक्ष चले जाते हों ऐसा तो नहीं हैं, अनंतानंत भव्य ऐसे हैं जो कभी मोक्ष न जा पायेंगे, लेकिन भव्यों में ऐसी शक्ति है कि वे इस योग्य परिणाम को व्यक्त करने की योग्यता रखते कि हमें जितने जीव दिखते हैं इनका कोई भाग ही नहीं कर सकता है कि हम किसको अभव्य कह दें । जब अनंत जीवों में एक अभव्य है तो प्राय: अभव्य तो दिखते ही नहीं हैं । यह भी बड़े मर्म की बात है कि अभव्य को तो मोक्ष जाना ही नहीं है और वे भव्य भी जो कभी मोक्ष जायेंगे नहीं । किंतु वे संसार में अनंत काल तक रहेंगे और अनंत काल तक भव्य भी चाहिए संसार में । लेकिन फिर भी उनमें भव्यता और अभव्यता का भेद पड़ा है जो ऐसा लगता है कि फोकट का भेद डाल दिया । काम तो दोनों का अर्थात् दूरातिदूर भव्य व अभव्य का एक है । फिर भी जो एक आंतरिक योग्यता है उस दृष्टि का प्रकाश किया है ।