वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 44
From जैनकोष
अनादिकालसंलग्ना दुस्त्यजा कर्मकालिका।
सद्य: प्रक्षीयते येन विधेयं तद्धि धीमताम्।।44।।
कर्मकालिमा के प्रक्षय के उपाय का अनुरोध― अनादिकाल से लगी हुई कर्मरूपी कालिमा यह बड़ी कठिनता से छुटाने योग्य है। तब भले ही रहो दुश्त्याज्य लेकिन इस कालिमा को शीघ्र नष्ट करने का उपाय करना ही अपना कर्तव्य है। अन्य उपाय करना वृथा है। बाहर में किन्हीं पदार्थों का निग्रह विग्रह करके अपने क्लेश मिटाने के उपाय में ऐसी अनिष्ट पद्धति उत्पन्न हो जाती है कि एक दु:ख को दूर करने का यत्न कर रहे थे कि इतने में दूसरा दु:ख और आ पडा। देखो वर्तमान में जो कुछ भी दु:ख है, वह तो सहा नहीं जाता और भविष्यकाल में अनगिनते दु:ख और आ जायें तब क्या करोगे? अरे, उनअनिष्ट परिस्थितियों की ओर दृष्टि देकर इस छोटे से ही दु:ख को समता से सहन कर जाइये, तब यह भी संभव है कि भविष्य के आने वाले दु:ख भी इस उपाय से टाले जा सकते हैं।
उदारता का परिणाम― ऐसी एक किंवदंती है कि एक मनुष्य को जीवन में एक वर्ष तो दिया सुख का और बाकी साल दिये दु:ख के, और पूछा गया कि भाई यह बतावो कि पहिले सुख के दिन चाहते हो या दु:ख के? तो उसने कहा कि सुख का वर्ष मुझे पहिले दीजिये। वह बुद्धिमान था, तो सुख के वर्ष में मिले हुए सारे समागम धन, वैभव उसने परोपकार में लगा दिये।जो होना होगा सो होगा, आखिर दु:ख तो आना ही है, जितना दु:ख आना हो आवे। जो दु:ख आगे आयेंगे उनको अभी से अपने आपमें बनाकर देख लें, यह भी तो एक खेल है। कर्मों के अनुसार आये हुए दु:ख भोगना है। जो भी दु:ख आते हैं उनको भोगते हुए में ज्ञानदृष्टि बनाये रहने का अभ्यास तो कर लो। तो उस पुरुष ने एक वर्ष में दान, त्याग, परोपकार, उदारता सब कुछ कर लिया, फल यह हुआ कि वे अगले समय के भी दु:ख शांत हो गए। यह कर्मकालिमा अनादिकाल से लगी हुई है यह जिस उपाय से शीघ्र नष्ट हो वैसा उपाय करना चाहिये।