वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 45
From जैनकोष
निष्कलंक निराबाधं सानंदं स्वस्वभावजम्।वदंति योगिनो मोक्षं जंमसंतते:।।45।।
मोक्ष में निष्कलंकता व सहज विकास― इस जीव का हित मोक्ष में है अर्थात् कर्मों सेविकारों से छूट जाने में हित है। यह मोक्ष सर्वप्रकार की कालिमा से रहित निष्कलंक है। चीज तो जो है सो है ही। बाहरी गंदगी लग गई है उसे धोकर दूर कर दो। जो है सो वही निकल आयेगा। सो यह आत्मा अपने सत्त्व से जो स्वरूप रख रहा है वह तो अपने कारण से है ही, इस पर जो व्यर्थ की कालिमा चढ़ गई है, विकारांश आ गया है, उपाधियाँ लग गई हैं, एक अज्ञानरूपी जल से, उन्हें धो धोकर साफ कर दो। तुम जो हो सो ही रह गये, यही मोक्ष है।
सुभग पुरुष― वे पुरुष कितने भाग्यशाली हैं, कितने भाग्यशाली थे जिनका आत्मगृह सर्वसंकटों से दूर करने वाले जिनवचनों से, जिनशास्त्रों की शरण से, संतों के सत्संग से, जिन तत्त्व मर्म की चर्चा से भरपूर और स्वच्छ सत्य शृंगार से सजा हुआ रहता था। उनके सौभाग्य की तुलना किस विभूति से की जा सकती है? करोड़पति, अरबपति भी कोई हो, आप सब लोग समझते भी हैं, कौनसी वहाँ वृद्धि है, शांति है, गुण है? जो लोग उन्हें बड़ा मानकर उनकी ओरझुकते हैं तो क्या उनके गुणों से आकर्षित होकर उनकी ओर झुकते हैं? क्या सौभाग्य है, कौनसी उत्कृष्टता है? अरे वे स्वयं अपने आप कितनी मलिनता में है, कितने मायाचार और लोभ से ग्रस्त हैं? इस जगत में बाहर कहाँशरण ढूँढ़ते हो। एक ज्ञानसलिल ही ऐसा समर्थ उपाय है जिसके द्वारा यह समस्त मल कलंक दोष धोया जा सकता है।
मोक्ष की निराबाधता― यह मोक्ष निष्कलंक है।निराबाध है।बाधायें आती हैं परसंगसे। मोह में मोही जीव अपने को निर्वाध समझते हैं परसंग से― यही तो एक क्लेश है। जितनी परसंग से विमुक्ति होती जायेगी, यह जीव जितना पर से निवृत्त होकर निज में मग्न होता जायेगा उतना ही इसका चमत्कार बढ़ता जायेगा।वह मोक्ष निराबाध है और सानंद है। जहाँकिसी भी प्रकार का दु:ख नहीं है, परम निराकुल दशा है। ये सांसारिक सुख, सुख के हेतु नहीं है, विनश्वर हैं, तृष्णा उत्पन्न करने वाले हैं, आंतरिक शांति करने में समर्थ नहीं है। शांति उत्पन्न करना तो दूर रहा ये तृष्णा की आग सुलगाते हैं। कितनी बड़ी हैरानी का बात है जहाँसार नहीं, आधार नहीं, हित नहीं, शरण नहीं और क्या कहें? इस पर के आलंबन को निरखकर ज्ञानी जीव तो उपहास करते हैं। क्या किया जा रहा है यह?
परमात्मतत्त्व की शुद्धि व सानंदता―इस आत्मा में रंचमात्र भी कुछ परपदार्थ ठहरने नहीं आता, यह सबसे न्यारा का न्यारा ही बना रहता है। लेकिन यह मोही जीव इन दु:खी जीवों में अपना नाम चाहने के लिये, इन मलिन प्राणियों में अपने आपको मुखिया बना देने के लिये, इस जन्म मरण के दु:ख से पीड़ित जनसमूह में अपने आपमें उनका बादशाह जता देने के लिये, अपने आपमें क्षोभ उत्पन्न करके बेचैनी का अनुभव कर रहा है। यह मोक्ष अवस्था ही आनंदसहित है। अन्यत्र कहीं आनंद नहीं है, सारा ठाठ व्यर्थ है, लगे रहो और मरते समय भी इस ठाठ को चिपकाये रहो तो भी होगा क्या।इसमें सिर मारने से विभूति में उपयोग आसक्ति रखने से कुछ पूरा न पड़ेगा।इस मूढ़ता से तो इस संसार के दु:खों की अग्नि से संतप्त होता ही रहना होगा। भैया !अपने आपको ऐसा अकिंचन् निजस्वरूपमात्र अनुभव कर लो जहाँ तुम्हें देह का भी ख्याल न रहे। कहाँहै यह देह? कौनसी सारभूत चीज है यह देह? अपने आपका शरीर अपने आपको कितना दुर्गंधित लग रहा होगा? यही तो सर्वत्र है। कौनसा पदार्थ इस जगत में रम्य है?
अज्ञानियों का व्यामोह― अहो ! ये अज्ञानी सुभट भगवान से भी आगे बढने की होड़ मचा रहे हैं। ये अज्ञानी सुभट भगवान के दर्शन भी करते होंगे कि देखो मैं कितना चतुर निकला कि भगवानके दर्शन करके भी अपना काम निकाल लेने में मैं कुशल रहा। भगवान तो जो जैसा है उसे वैसा ही जान पाते हैं, उनमें इतनी शूरता अब नहीं रही कि किसी भी पदार्थ के बारे में वे दसों और भी कल्पनाएँकर लें। जैसा है तैसा ही झलक में आता है किंतु यह अज्ञानी सुभट उस पदार्थ के बारे में ऐसी पचासों कल्पनाएँ कर बैठेगा जिनका वहाँ कुछ लगाव भी नहीं है। यह काम भगवान भी नहीं कर पाते।पर इस उल्टी लीला को कर लो, समर्थ तो होना, लेकिन इसमें कुछ सार नहीं है। इस अज्ञान और मोह की विडंबना में कुछ शरण न मिलेगा। यह व्यर्थ की ममता अहंकार कषाय केवल आपको बरबाद करने के लिये ही उत्पन्न हुए हैं।
मोक्ष की स्वभावजता― सुख तो मोक्ष में है। यह सुख अपने स्वभाव से उत्पन्न है, अतएव अविनाशी है। जो दूसरे का उपजाया हुआ सुख हो वह तो नष्ट भी हो सकता है, किंतु जो स्वभाव से उत्पन्न हो उसका विनाश नहीं है। यह मोक्ष जन्म संतति का उल्टा है, विपक्षी है, योगी पुरुष ज्ञानी संत पुरुष ऐसा मोक्ष का स्वरूप जानते हैं और उसका ही यत्न करते हैं।