वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 47
From जैनकोष
विचारचतुरैर्धीरैत्यक्षसुखलालसै:।
अत्र प्रमादमुत्सृज्य विधेय: परमादर:।।47।।
अंतस्तत्त्व में आदर का अनुरोध―जो धीर और विचारशील पुरुष हैं तथा अतींद्रिय सुख की लालसा रखते हैं उन्हें प्रमाद छोड़कर इस मोक्ष का ही आदर करना चाहिये। सुख दो प्रकार के कहे गये हैं, एक इंद्रियजंयसुख और एक अतींद्रियजंय सुख। अतींद्रिय विशेषण के साथ सुख न कहकर आनंद कहना चाहिये। इंद्रियसुख में क्या दम है, केवल एक भूलभुलैया है। कुछ समय को काल्पनिक कोई सुख पा लिया उस सुख में क्या स्थिरता है? उस सुख के साधन पर क्या अधिकार है? इंद्रियजंय सुख में आत्मा का कौनसा लाभ है? उस सुख में आसक्त होकर जो कर्मबंधन हो जाता है वह सब कहीं भाग तो न जायेगा, उसका फल संसार में जन्म मरण करते रहना है, रुलते रहना है। विवेकी पुरुष मोक्षसुख की ही अभिलाषा रखते हैं, इन इंद्रियज सुखों की वे अभिलाषा नहीं करते। ज्ञानार्णव ग्रंथ की भूमिका में ऐसी शिक्षा दी है कि जिससे इस ग्रंथ के वक्तव्य में श्रोतावों की रुचि जगे और उस प्रतिपादन से अपना लाभ ले लेवें।