वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 499
From जैनकोष
अहिंसैव जगंमाताऽहिंसैवानंदपद्धति: ।
अहिंसैव गति: साध्वी श्रीरहिंसैव शाश्वती ॥499॥
जगतमाता अहिंसा ― उत्तम ध्यान का पात्र अहिंसक संत ही हो सकता है, इस कारण सम्यक्चारित्र के प्रकरण में अहिंसा धर्म का वर्णन चल रहा है । अपने आपके परिणामों में मोह विकार न आने देना, रागद्वेष का तामसपना न होने देना यही है वास्तविक अहिंसा । और, ऐसे अहिंसाधर्म का आचरण करने वाले संतों की जो बाह्य प्रवृत्ति है, जिसमें जीवदया बसी हुई है वह है द्रव्य अहिंसा । अहिंसा ही जगत की माता है । माता उसे कहते हैं जो बच्चे का पालन करे । अहिंसा समस्त जीवों की प्रतिपालना करती है । जो अहिंसाभाव से रहे उसका प्रतिपालन तो होता ही है, और उसके निमित्त से जगत के अन्य जीव भी निसंग, निर्भय रहा करते हैं, अतएव अन्य जीवों की भी प्रतिपालना होती है । जगतमाता अहिंसा ही है ।
अहिंसा आनंद का उपाय ― विशुद्ध आनंद की कोई पद्धति है तो अहिंसा ही है । क्रूर हिंसक पुरुष को आनंद और प्रसन्नता कभी नहीं आ पाती है । जो पुरुष समतारस से भीगा है, दूसरे जीवों के सताने का परिणाम नहीं रखता, अपने अहिंसा स्वभाव का आलंबन रखता है उस पुरुष के विलक्षण आनंद प्रकट होता है । कभी किसी जीव को सताने का संकल्प ही आ जाय तो ऐसा संकल्प करने वाला तत्काल दु:खी हो जाता है । दूसरे जीवों को भला करने का भाव करे तो वहाँ क्लेश नहीं आता, प्रत्युत आनंद बरसता है और कोई दूसरे जीवों को सताने का भाव करे, किसी की निंदा का भाव करे, किसी के बुरा करने का भाव करे तो उस भाव के समय ही यह दु:खी हो जाता है । आनंद की परिपाटी तो अहिंसा से ही प्राप्त होती है ।
न्यायवृत्ति कल्याण में सहायक ― न्यायवृत्ति से जीव बिताना यह कल्याण के लिए अति आवश्यक है । छोटी सी बात पर अथवा बड़ी भी बात हो किसी भी प्रसंग में अन्याय की बात मन में न लाना चाहिए । चाहे उसमें कुछ लाभ हो रहा हो आर्थिक या अन्य कोई लौकिक लाभ हो रहा हो उस लाभ को स्वीकार न करें, किंतु हम न्यायपथ से ही चलेंगे, अन्यायपथ न लेंगे, इतनी दृढ़ता रखनी चाहिए । जो पुरुष न्यायशील होता है, अन्याय को पसंद ही नहीं करता उस पुरुष में ऐसा आत्मबल रहता है कि वह विकल्पों को तोड़कर आत्मा का उत्तम ध्यान कर सकता है । अन्याय करने वाले पुरुष बड़े शल्य के साथ जीवन बिताया करते हैं, उनको अपना जीवन भी भाररूपसा नजर आने लगता है । अन्याय का फल वर्तमान में न मिल सके अथवा कुछ और थोड़े समय तक भी न मिल सके लेकिन अन्याय के कारण जो आत्मा में कायरता की कमजोरी निर्बलता बनती है ऐसी निर्बलता बन बनकर कभी इकट्ठा अपना परिणाम दिखा देती है । बातें हैं बहुत छोटी-छोटी सी, यात्रा कर रहे हैं, बालक 14 वर्ष का है फिर भी आधा टिकट लेकर जा रहे हैं । पूछा तो कह दिया कि यह तो 11 वर्ष का है । अथवा कोई चीज लिये जा रहे हैं, चुँगी पड़ी तो उस चुँगी की परवाह न करके सीधे लिए चले जा रहे हैं । ये हैं सब छोटी-छोटी बातें । किंतु इन सबसे ऐसी प्रकृति बन जाती है कि फिर और-और अन्याय करने के लिए दिल बन जाया करता है । और, उससे जो कर्मबंध होगा, जो कर्मसंचय होगा उसका परिणाम फिर बुरी तरह भुगतना पड़ता है । ऐसा जीवन हो जिसका कि हम गरीबी में भी गुजारे का ढंग निकाल सकते हैं, जो भी परिस्थिति हो उसमें ही हम अपना गुजारा कर सकते हैं, पर न्यायपथ से हम कभी विचलित न होंगे । ऐसा न्यायशील जीवन कोई बिताये तो उसके आत्मा में कल्याण का बहुत बल पड़ा हुआ होता है । आनंद की पद्धति तो अहिंसा ही है ।
न्यायपूर्णव्यवहार ही अहिंसा ― न्याय से जीवन बिताने का नाम अहिंसा है, और उस पथ में ही आनंद प्रकट होता है । अहिंसा ही वास्तविक गति है । सद्गति की प्राप्ति अहिंसा से होती है । और, अहिंसा ही वास्तविक शाश्वत लक्ष्मी है । जितने भी जगत में उत्तम से उत्तम गुण हैं वे सब अहिंसा में बसे हुए होते हैं, और अहिंसापालन के लिए सबसे मुख्य बात यह ग्रहण कर लें कि किसी का अनिष्ट चिंतन न करें । किसी का बुरा करने की बात तो दूर रही, अनिष्ट चिंतन भी न करें । पर के नुकसान होने से किसी को मिल क्या जायगा ॽ बुरा परिणाम करने से पाप का बंध और कर लिया । एक तो जीवन में इस बात का अभ्यास बनायें कि किसी भी जीव का अनिष्ट चिंतन न करें, किसी के द्वारा कितना ही विरोध हो, अथवा कोई प्रतिकूल चेष्टा की गई हो तिस पर भी दूसरे के अनिष्ट चिंतन का भाव न आ सके वह हृदय बड़ा पवित्र है । अपना जीवन न्याशील बितायें, किसी का बुरा चिंतन न करें ये दो गुण प्रकट हो जायें तो उस आत्मा के कल्याण में फिर क्या संदेह है । तो अहिंसा इस जीव का परमउद्धार करने वाली है ।