वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 498
From जैनकोष
श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च ।’’अहिंसालक्षणो धर्मस्तद्विपक्षश्च पातकम्’’ ॥498॥
धर्म का मूल अहिंसा ― सभी लोग अहिंसा को धर्म मानते हैं । अहिंसा ही धर्म है । अहिंसा का प्रतिपक्षी है हिंसा । हिंसा करना ही पाप है । इस सिद्धांत से जो विपरीत वचन हैं वे विषयाभिलाषी जीवों के वचन हैं । एक यह निर्णय है कि जिसमें अहिंसा मूल हो वह तो धर्म है और जिसमें हिंसा होती हो वह अधर्म है । अब अहिंसा के क्षेत्र में अपना जीवन लगाने वाले जीवों की पदवियों के अनुसार भिन्न-भिन्न परिणति होती है, उसमें भी निर्णय करते जाइये जिसमें हमारे ज्ञान दर्शन प्राण का विघात न हो जितने अंशों में और दूसरे जीवों का अकल्याण न हो उस पदवी में उस कार्य को अहिंसा कहा करते हैं । गृहस्थ की अहिंसा परिणति के काल में और साधु की अहिंसा परिणति के काल में यद्यपि अंतर रहता है लेकिन ज्ञानी गृहस्थ हैं तो ज्ञानी साधु हैं तो पद्धति में अंतर न रहेगा, लक्ष्य में अंतर न रहेगा । एक निर्णय बनावें और इसी तरह का कौन काम करना धर्म है, कौन सी बात करने में धर्म नहीं है इसकी भी कसौटी यह है कि जिस-जिस कार्य के करते हुए में रत्नत्रय का संबंध जुड़ सकता है वह तो व्यवहार में धर्म है और जिसमें रत्नत्रय का संबंध जुड़ने की बात ही नहीं है वह धर्म नहीं है । जैसे सांसारिक प्रयोजनों के लिए धन लाभ, मुकदमा विजय आदिक कुछ भी प्रयोजन रखकर जो मंदिर में पूजा, यात्रा, दान, बलि, मान्यताएँ आदिक किए जाते हैं उसमें खोज कर लीजिए कि रत्नत्रय से संबंध जुड़ने का इसमें कुछ अंश पड़ा हुआ है अथवा नहीं पड़ा हुआ है, उससे ही निर्णय हो जायगा कि यह धर्म है अथवा धर्म नहीं है । जिसमें हमारे स्वभाव का स्पर्श हो, श्रद्धान हो, ज्ञान हो, मग्नता हो, शुद्ध आनंद बरसे, विह्वलता मिटे, निर्मोह परिणाम जगे, वीतरागता प्रकट हो वह भी तो सब धर्म है, और जिसमें मोह बढ़े पर्यायबुद्धि जगे, बाह्यदृष्टि बढ़े वे सब अधर्म हैं ।
प्रभुदर्शन से ज्ञान जगाने की प्रेरणा ― प्रभुदर्शन से ऐसी अपनी तर्कणाशक्ति बढ़ाना चाहिए और विचार लेना चाहिए कि हे प्रभो ! जो वास्तविक कर्तव्य है, यथार्थ शरण है वह आपने कर लिया, पा लिया । हमारे लिए भी यही कर्तव्य है और यही स्थिति शरण है । इतनी बात तो प्रभुदर्शन में अपने प्रति आना ही चाहिए । यदि शिक्षा नहीं प्राप्त होती तो केवल सांसारिक सुखों के लिए ही यह सब किया जा रहा है तो उसमें संकट टलने की बात तो नहीं आ सकती है, जन्म मरण के संकट मिटाने का मार्ग नहीं मिल सकता है । एक ही निर्णय है । जैसे प्रभु ने अपने आत्मा का श्रद्धान किया, ज्ञान किया, अपने आपमें रमें, इसी प्रकार हम भी अपने आपमें गुप्त ही अंत: अपना श्रद्धान करें , ज्ञान करें और उस ही उपयोग में बसे तो हमारे जन्म मरण के सारे संकट दूर हो सकते हैं ।