वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 51
From जैनकोष
नासादयसि कल्याणं न त्वं तत्त्वं समीक्षसे।
न वेत्सि जन्मवैचित्र्यं भ्रातर्भूतैर्विडंबित:।।51।।
विषयविडंबना से निवृत्त होने का उपदेश―हे भ्राता !तू इंद्रिय के विषयों से विडंबित होकर अपने कल्याण को प्राप्त नहीं करता है और तत्त्व का विचार नहीं करता है तथा संसार की विचित्रतावों को नहीं जानता है। यह तेरी अज्ञानता है। इस श्लोक में चार बातों पर प्रकाश डाला है। यह मोही प्राणी इंद्रिय के विषयों से विडंबित रूप बन रहा है। कहाँतो इसका सीधा सादा ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप ज्ञायकस्वभाव है और कहाँ यह अपने इस परमस्वभाव से चिगकर बाह्यपदार्थों में अपने आनंद की आशा रखता है। जो किसी बाह्य पदार्थ में आशा रखे, अधिकार की कल्पना करे उसको विडंबना होती ही है। अपने अंतस्तत्त्व को संभालो और इंद्रिय विषयों की विडंबना में मत फँसो।
धनिक बनने के लक्ष्य की मूढ़ता― भैया !पहिले यह निर्णय कर लो कि तुम्हें क्या बनना है? इस लोक में करोड़पति, अरबपति बनकर इस कल्पित दुनिया में तुम्हें प्रसिद्ध बनना है क्या? तुम्हारी चाह क्या है तुम्हारा लक्ष्य क्या है? किस बात में अपना हित और बड़प्पन माना है? क्या स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इंद्रिय के विषयों की मौज ले लेने पर अपने को खुश करने का प्रोग्राम बनाया है। तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है, पहिले यह निर्णय कर लो। यदि इस लोक में महा धनिक बनने का लक्ष्य है तो उस पर भी विचार करो। प्रथम तो धनी बनने में निराकुलता नहीं है। फिर दूसरी बात यह है कि वह धन भी क्षणिक नहीं है, नियम से नष्ट होगा। वियोग होगा उसका भी तो विश्वास नहीं है कि वह रहे। यदि वह निश्चयरूप से रहे ही तो चलो कुछ दु:ख ही सह लें। सो यह रहता भी नहीं है। फिर जिन जीवों से तुम अपने को बड़ा कहलवाना चाहते हो वे जीव भी न रहेंगे, और उन्होंने कह भी दिया तो भी तुम्हारे भक्त बनकर नहीं कह रहे हैं, किंतु उन्हें भी कुछ प्रयोजन लगा होगा तो आपकी बढ़ाई करेंगे। धनी बनने में कौनसा हित है? उसका लक्ष्य मत बनावो, उसके लिये अपनी जिंदगी मत समझो।
विषयोपभोग के लक्ष्य की मूढ़ता― स्पर्शन इंद्रिय के विषय में कामसेवन में यदि हित समझा है, उससे ही अपना बड़प्पन और सुख माना है तो यह बहुत बड़े धोखे वाली बात है।जंमजंमांतर से यह जीव इंद्रिय के विषयों को भोगता हुआ मलिन बन रहा है, इसी से व्याकुलता भी अपने सिर लदी है। यह कामसेवन आत्महित की बात नहीं है, यों ही समस्त इंद्रियों की बात है। इंद्रिय के किसी भी विषय का लक्ष्य मत बनावो। हम किसलिये जीवित रह रहे हैं इस प्रयोजन के निर्णय के लिये कुछ कहा जा रहा है। यहाँ परिस्थितिवश सब कुछ करना पड़ता है, विषयों का भोगना, धन का कमाना, धनी होना, सब बातें करनी पड़ती हैं, किंतु तुम अपने भीतर की निज की बात बतावो। क्या यह निर्णय किया है कि हमारा जीवन विभूति मात्र बनने के लिये अथवा इंद्रिय विषयों को भोगने के लिये है। यदि ऐसा विकल्प है तो इस निर्णय को बदलों। ये धोखे की सारी बातें हैं इन इंद्रिय विषयों से विडंबना को प्राप्त मत होवो।
विषय वैभव के लगाव में कल्याण का अभाव― दूसरी बात कही है कि यह जीव अपने कल्याण में नहीं लगता। कैसे लगे? जब विषयों की आधीनता हृदय ने स्वीकार कर ली है तो वह विषयों की ही धुन बनायेगा? अपने सारे यत्न, अभिलाषायें, चिंताएँ पर के प्रसंग में बनेंगी तो आत्मकल्याण कैसे होगा? आत्मकल्याण तो यही है ना कि यह पूर्ण निराकुलता का अनुभव करे, रंच भी आकुलता न हो। यह निराकुलता केवल स्व के आश्रय में ही मिलेगी, किसी पर के आश्रय में न मिलेगी।
आत्मोपलब्धि में दु:खों का मूल से विनाश― आप यदि यह आशंका उठायें कि भूख लगती है, प्यास लगती है, ठंड गर्मी लगती है, इनके लिये तो सब कुछ करना पड़ेगा। तो भाई पहिले यह विश्वास बनावो कि यह मैं आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप हूँ और इस ज्ञानस्वरूप की भावना से मैं कभी इन उपाधियों से शरीरों से छूटकर केवल रह जाऊँगा, फिर बतावो उसमें क्या भूख होगी, क्या प्यास होगी, फिर कोई उपद्रव नहीं है और यदि इन भूख, प्यासों के उपद्रवों के शमन के लिये ही ऐसा करने के लिये ही अपना जीवन मानाहो तो इससे कब तक अपनी साधना बनाये रहेंगे? ये भूख आदि की परंपरायें तुम्हें दु:खी ही करती रहेंगी। ऐसा उपाय करो नाकि शरीर ही न रहे, फिर भूखादिक किसमें विराजेंगे? यह बहुत बड़ा काम है, सर्वोत्कृष्ट काम है। इससे बढ़कर और कोई हित की बात नहीं है। यह जीव पाये हुए समागमों में ममता बनाकर दु:खी हो रहा है। अपने कैवल्यस्वरूप की दृष्टि बने तो वहाँ कल्पनावों का काम नहीं है। कल्याण यही है। अपने आपके स्वरूप में उपयोगी बनें, यही आत्मकल्याण है।
मोह वस्तुस्वरूप के विचार का अभाव― तीसरी बात कही गई है वस्तुस्वरूप का यह विचार नहीं करता है। कैसे करे? जैसे लोकव्यवहार में कहते हैं ना, ‘भूखे भजन न होय गोपाला, यह लो अपनी कंठीमाला।’हम भूखे बैठे हैं भक्ति न बनेगी। यह अपनी कंठी माला ले लो। कैसे वह जाप दे। पेट में तो चूहे लोट रहे हैं, भूख के मारे परेशान हैं, मन तो नहीं लगता, ऐसे ही अध्यात्म क्षेत्र की बात समझें कि जब परपदार्थों की ओर अपना उपयोग लगाया है, इंद्रिय विषयों में यह मन रँगीला बना दिया है तो इस मन में विषयों के विचार आयेंगे या तत्त्व विचार आयेंगे? कहाँ से तत्त्वविचार आयेंगे। विषय व्यामोह से बढ़कर भी कोई विपदा है क्या? लग रहा है ऐसा कि सुख का पथ यही है, और कट रही है आनंद की सब जड़ें। उस ओर इस व्यामुग्ध पुरुष की दृष्टि ही नहीं है। इन सब विषयों का विनाश करने में समर्थ तत्त्व विचार है। अपने आपका कुछ ध्यान तो करो, में कौन हूँ, किस गुण वाला हूँ, क्या मेरा स्वभाव है, इस समय क्या स्थिति है, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा?
मोह की विडंबना― यदि अपने विषय में कुछ भी विचार नहीं है तो जैसे किसी पागल मुसाफिर को देखकर आप उसका उपहास करते हैं, यह पागल है, इसका कुछ पता ठिकाना ही नहीं है। कहीं रुक जाय, जिसे अपने आपका पता ही नहीं। मैं कहाँसे आया, कहाँमुझे जाना है? इतना तक भी बोध नहीं कि आखिर मैं हूँकौन? किस घर का हूँ। तो जैसे पागल मुसाफिर उपहास का पात्र है, बेकार है ऐसे ही यह उन्मत्त जीव जिसे यह पता नहीं कि मुझे कहाँजाना है, मैं कौन हूँ, जिसे अपनी बात का परिचय नहीं है ऐसे इस उन्मत्त जीव पर क्यों हँसेंगे? ज्ञानीजनों की दृष्टि में वह उपहास का पात्र है।
अज्ञानी जीव के अपनी सुध का व तत्त्वविचार का अभाव―भैया ! अपनी सुध लो कि मैं कौन हूँ। नाम लेकर निर्णय मत करो कि मैं अमुक हूँ, जहाँयह नाम की आड आई कि सारा पासा पलट जाता है। इतना भर सोच लो कि में अमुक हूँ, जहाँनाम लेकर कहा बस वही सारी स्थितियाँखराब हो जाती हैं। फिर पर का परिचय, पर का संकोच, पर के प्रति व्यवहार और सारे उपद्रव लद जाते हैं जबकि अपने आपको अपने को नामरूप में परखा। में नाम वाला नहीं हूँ। मैं एक प्रतिभासस्वरूप भावात्मक पदार्थ हूँ,किस स्वभाव वाला हूँ।केवल ज्ञाताद्रष्टा रहूँ, ऐसे ज्ञानस्वभाव वाला मैं हूँ। कहाँ से आया हूँ? निकट सही का पता तो नहीं बता सकता, किंतु यह कह सकूँगा कि मैं किन्हीं अन्य गतियों से आया हूँ। कहाँजाऊँगा? सही बात तो नहीं कह सकता मगर अंदाजा बता दूँगा। अपने परिणामों को निरखकर अंदाज कर लो। बहुत मूर्छा बनी हुई है तो नरक में जाऊँगा। यदि छल कपट की प्रधानता है तो पशु, पक्षी, कीड़ा, मकौड़ा कुछ भी तिर्यंच हो जाऊँगा।थोड़ा आरंभ परिग्रह मूर्छा है, स्वभाव में नम्रता है तो मनुष्यगति में जाऊँगा और कुछ तपस्या में लगे व्रत, तप में लगे तो देवगति में जाऊँगा, इसका अंदाज है। आज तो मोक्ष में न जा पाऊँगा पर उसकी जड़ हम बन सकते हैं और निकट भव में ही हम मोक्ष जायेंगे। कुछ तो निर्णय करो अपने आपके बारे में ही सही, इस इंद्रजाल, इस विभूति को निरखकर। यही सब कुछ हमाराहै, इस छोटी सी बात में उलझकर अनंतज्ञान अनंत आनंद के विकास को पाने से क्यों भाग रहे हो? ये सब विकासतत्त्व विचारों से उद्भूत होते हैं। यह व्यामोही जीव विषयों का अनुरागी तत्त्व विचार नहीं कर पाता।
संसार वैचित्र्य की अनभिज्ञता में विचित्र दशायें― चौथी बात कही गयी है कि यह संसार की विचित्रता को नहीं जानता। यह संसार विषम है, दु:खरूप है, विचित्र है, मेरा साथी नहीं है आदिक सही बातों को नहीं जान पाता। तब संसार में ही लोभी बन रहा है, सांसारिक समागमों से ही अपना बड़प्पन मानता है। जो संसार की विचित्रता से इंद्रियों के विषयों के प्रेम के कारण विविध देहधारी बनता है। हे मुमुक्षु ! अब तो संभाल, अपने आपमें सम्यक्प्रकाश को पाकर विषयों की मूर्छा का विनाश करो।