वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 50
From जैनकोष
संगै: किं न विषाद्यते वपुरिदं किं छिद्यते नामयै:,मृत्यु किं न विजृंभते प्रतिदिनं द्रुहयंति किं नापद:।
श्वभ्रा: किं न भयानका: स्वप्नवद् भोगा न किं वंचका:,येन स्वार्थमपास्य किन्नरपुरप्रख्ये भवे स्पृहा।।50।।
विषाद का कारण― इन संगों से क्या यह जीवन विषाद से भरा हुआ नहीं बनता? अर्थात् यह परिग्रह धन धान्य स्त्री कुटुंब आदि का मिलाप क्या यह तुझे विषादरूप नहीं करता? किसी भी परजीव से अपना परिचय बनाना यह ही एक आपत्ति का मूल है। जीव का परिचय तभी बन पाता है जब जीव जाति से अलग हटकर व्यक्तिरूप में इसको न्यारा करके निरखा जाय, यही हे मोहमय काल्पनिक परिचय। जहाँ यहाँके लोगों से परिचय हुआ वही से दु:ख प्रारंभ होने लगा। यह संग क्या तुझे विषाद को प्राप्त न करायेगा? और जीवन है ही क्या? संग करना और दु:ख भोगना, इन दो का जोड़है इसी के मायने यह जीवन है। समागम बनाना और दु:ख भोगना। जैसे सवाल में बोलते हैं, दो और दो चार, ऐसे ही समागम बनाना और दु:ख भोगना मिलाकर क्या हुआ? जीवन। इस जीवन में और क्या चीज मिलेगी? जो साधारणतया पुरुषों का जीवन है उसकी बात कही जा रही है। यह संग मेलमिलाप में क्या तुझे विषाद रूप नहीं करता है?
शरीर की रोगाक्रांतता― इस शरीर को देखो क्या यह शरीर रोगों के द्वारा छिन्न-भिन्न होकर तुझे पीड़ित नहीं करता है? शरीर में क्या है? ये हाथ पैर सब बड़ी सफाई के लग रहे हैं और जहाँकहीं भी रक्त रुक गयाऔर फुंसी हो गई वहाँही यह शरीर विड्रूप लगने लगता है। क्या यह शरीर रोग से छिन्न-भिन्न नहीं हो जाता। यह संसार की दशा का वर्णन चल रहा है, ऐसा ध्यान दिलाने के लिये ऐसा इंद्रजाल की तरह अरम्य, अहितरूप इस संसार में तेरी क्यों स्पृहा होती है? यह मृत्यु क्या तुझे ग्रसने के लिये मुख नहीं उठा रही है? अर्थात् सब मृत्यु के मुख में पड़ गये हैं। पता नहीं किस क्षण कब मृत्यु हो जाये? जैसे स्वयंभ्रमण समुद्र में बड़ा मच्छ मुँह बाये रहता है भीतर मछलियाँ लोटती रहती हैं, जिस क्षण उसबड़े मच्छ ने मुँह दबाया कि 10-5 हजार मछलियाँएक बार मुँह दबने से पेट में चली जाती हैं। इतना बड़ा मच्छ होता है। उसके मुँह में हजारों मछलियाँ कूदती खेलती रहती हैं पर पता नहीं कि किस क्षण वे अपना जीवन खो दें, ऐसे ही हम आप सब खुश होते हैं, विकल्प करते हैं बहुत-बहुत चिंतातुर रहा करते हैं।अरे पता तो है ही नहीं कि किस क्षण इसकी मृत्यु हो जाय? तो यह मृत्यु सदा जीवन को भखने के लिये मुँह फाड़े हुये है।
आपत्तियों का निर्माण― अहो ! देखो अन्य भी अनेक प्रकार की आपत्तियाँ विपदाएँ आ रही हैं और किसी प्रकार का उपद्रव आ भी नहीं रहा हे तो मन से कल्पनाएँ करके विपदाएँ बना लेते हैं। जैसा एक छोटा बच्चा माँ के पास बैठा है, माँ बातों में लगी है, बच्चे की इच्छा हो गई कि घर चलें और घर जाकर क्या खा लेगा? माँ के पास बैठा है, सारे आराम हैं, गोद में बैठ जा, सब आपत्तियों से दूर है। तुझे और क्या चाहिये, पर हो गया उस बच्चे को विकल्प तो जब तक माँ वहाँ से उठ न देगी तब तक वह बच्चा बेचैन रहता है, रोने लगता है। अरे आपत्तियाँ उसने बनायी या उस पर आयी? उसने ही विकल्प बनाकर आपत्तियाँ बना ली। तो ऐसे ही ये सब अज्ञानी जीव किसी भी प्रसंग में अट्टसट्ट कुछ भी विचार करके अपने आपमें आपत्तियाँ बना लेते हैं। इन आपत्तियों ने क्या तुझ पर द्रोह नहीं किया?
भोगों की स्वप्नसमता― इस जीव की दशा बता रहे हैं कि कैसी दशा है? यह संसार कैसा है, इन समागमों का प्रेम कैसा है? क्या तुझे यह विदित नहीं है कि यह नरक बड़ा भयानक होता है? क्या तुझे यह विदित नहीं है कि ये भोग स्वप्न के समान तुझे धोखा देने वाले हैं? किसी को स्वप्न आ गया कि बड़ा आनंद भोग रहे हैं, राज्य मिल गया है। शासन कर रहे हैं, मनमाना भोग भोग रहे हैं। किसी ने धक्का लगा दिया, नींद खुल गयी, लो सारा वैभव खत्म हो गया। एक भाई को आ गई नींद। उस नींद में स्वप्न देखा कि मुझे किसी राजा ने 50 घोड़े इनाम में दिये हैं।बढ़िया से बढ़ियाघोड़े हैं। उन घोड़ों के खरीददार आये, खरीददार लोग कहते हैं कि इन घोड़ों की कीमत बतावो? सस्ते जमाने की बात है। वह बोला घोड़ों की कीमत सवा-सवा सौ रुपया है। 50-50 रुपये में दोगे? नहीं। अच्छा 110 रुपये में देंगे। 60-60 रुपये में दोगे? अच्छा सौ-सौ रुपये में ले जावो। 70-70 रुपये में दोगे? 90 रुपये से कम में न देंगे। अच्छा 80-80 र. में दोगे? अब यहाँ दोनों में एक गुच्चसी हो गयी। इतने में वह पुरुष जग गया। जगने पर देखा कि यहाँतो कुछ भी नहीं है, न घोड़े हैं न ग्राहक हैं, तो फिर वह आँखें मींच लेता है व कहता है कि अच्छा 80-80 रुपये में ही ले जावो। था वहाँकुछ नहीं, पर उसने सोचा कि शायद आँखें बंद कर लेने से वे घोड़े आ जायेंगे? तो जैसे यह सब स्वप्न का दृश्य है, ऐसे ही ये सब भोगों के समागम स्वप्न की तरह हैं।
अतीत भोग― यों भोग स्वप्नवत् हैं इस बात को समझने के लिये उन अतीत बातों पर दृष्टि दो। जिनके साथ आप हिल मिलकर रहे, प्यार से रहे, सुखपूर्वक रहे और उनका हो गया वियोग तो वियोग के बाद फिर लगने लगता है कि अरे ये सब स्वप्न का ठाठ था। यह सर्वसाधारण को उस समय विदित होता हे कि वह सारा स्वप्न था जब उसका वियोग हो जाय, किंतु संयोग के समय में यह ज्ञान कर ले कोई कि यह सब स्वप्न जैसा ठाठ है तो फिर उसके शंका नहीं रहती। हे मुमुक्षु !हे आत्मन् ! क्या ये भोग तुझे स्वप्न की तरह धोखा देने वाले नहीं मालूम पड़रहे हैं?खूब सोच लो।
राग में विडंबना― रानी रक्ता की एक कथा है। राजा देवरति अपनी रक्ता रानी से बहुत प्रेम करता था। उस रानी के प्रेम में राजा देवरति इतना आसक्त हुआ कि राज्य का सारा कारोबार ढीला पड़ गया, प्रजा में अशांति फैल गई। यह हालत देखकर सभी मंत्री राजा के पास पहुँचे और बोले राजन् !आप तो अपनी रानी में आसक्त हैं, राज्य में अशांति फैल गई है, आप या तो इस राज्य को संभालिये या इस रानी को लेकर नगर से बाहर चले जाइये, हम मंत्रीगण राज्य संभाल लेंगे। राजा रानी को लेकर नगर से बाहर चला गया। किसी गाँव के किनारे डेरा डाल दिया। राजा गाँव में कुछ खरीदने चला गया। राजा तो गाँव में खाने की चीजें लाने चला गया और गाँव के किनारे एक-एक खेत पर एक कुबड़ा व्यक्ति चरस हांक रहा था। उसने कोई गीत गाया तो उस गीत को रानी ने सुन लिया। उस कुबड़े के पास रानी पहुँची और बोली कि अब तो में आपके संग रहना चाहती हूँ। आज से तुम हमारे हो गये।कुबड़ा बोला कि ऐसा न करो, नहीं तो राजा हमें भी मार डालेगा और तुम्हें भी। रानी ने कहा कि उस बात का उपाय तो हम बना लेंगी। बस रक्ता उदास होकर उस झौंपड़ी में चली गई जहाँ पर ठहरी थी। राजा आया तो उसने रानी को उदास देखा। राजा बोला― तुम क्यों उदास हो? तुम्हारे पीछे तो हमने सारा राज्य छोड़ा, तुम अपनी उदासी का कारण बतावो? रानी बोली― सुनो आज आपका जन्मदिवस है। यदि महलों में होती तो आपका विशेष स्वागत करती, यहाँकिस तरह से आपका स्वागत करें? राजा ने कहा ऐ रानी तू जैसा चाहे हमारा स्वागत कर ले। रानी ने कहा देखो फूल ला दो, में माला बनाऊँगी। माला बनाकर बोली, जो वह पहाड़ है, उस पहाड़ की चोटी पर चलो, वहाँ पर मैं आपका स्वागत करूँगी। राजा ने फूल ला दिये और 50-50 हाथ की लंबी कई मालायें रानी ने बनाई। राजा को उस पहाड़ की चोटी पर बिठा दिया और रानी ने उन मालावों से राजा को कस दिया। जब राजा खूब बँध गया तो एक तेजी का धक्का मारकर राजा को ढकेल दिया। राजा लुढ़कते-लुढ़कते नदी में जा गिरा।
विधि विधान―राजा देवरति तो नदी में बहकर किसी पेड़ से टकराकर किसी किनारे लग गया, नदी से निकल आया और पास की नगरी में चला गया। उन दिनों उस राज्य का राजा मर गया था, सो मंत्रियों ने हाथी की सूंड में एक फूलमाला डालकर छोड दिया था और यह प्रतिज्ञा की कि यह हाथी जिस मनुष्य के गले में यह जयमाला डाल देगा उसी को हम अपना राजा बनायेंगे। हाथी ने वह जयमाला उसी राजा के गले में डाल दी, जो नदी में बहकर गया था। वह तो वहाँ राजा बन गया और इधर रानी उस कुबड़े के संग में हो गई।कुबड़े को टोकने में बिठाकर वह जगह-जगह घूमती थी क्योंकि वह चल नहीं सकता था वह कुबड़ा गाये और वह रक्ता रानी नाचे, इस तरह से जो कुछ पैसे मिल जायें उन्हीं से दोनों अपना गुजारा करते थे। किसी तरह ये दोनों उस राज्य में भी नाचते गाते पहुँचे जहाँवही राजा देवरति राज्य करता था। राजा को पता लगा कि कोई नटनी जो कि पतिभक्त है, अपने पति को सदा टोकने में बैठाकर सिर पर रखकर चलती है, पति तो गाता है और वह नाचती है, यह बात सुनकर राजा ने अपने दरबार में उन्हें नाचने और गाने के लिये बुलाया।वहाँ उस राजा ने जब अपनी ही रानी को उस हालत में देखा तो उसे वैराग्य हो गया। सोचा ओह ! यह वही रानी है जिसने मेरे मारने का उपाय रचा था। राज्य को छोड़कर चल दिया कहा कि धिक्कार है ऐसे जीवन को। तो ये भोग स्वप्न की तरह असार है, क्या यह तुझे विदित नहीं है? इस इंद्रजालवत् पुद्गल के समूह को एकत्रित करने की तू इच्छा कर रहा है। अरे इस संसार के भोग साधनों को असार समझकर अपने आत्महित की साधना में लगो। इससे ही तुम्हारा हित होगा।