वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 6
From जैनकोष
श्रुतस्कंधनभश्चंद्रं संयमश्रीविशेषकम्।
इंद्रभूति नमस्यामि योगींद्रं ध्यानसिद्धये।।6।।
गौतम स्वामी को नमस्कार― जो श्रुत स्कंधरूपी आकाश में चंद्र की तरह हैं, जैसे आकाश में चंद्र की शोभा है इस ही प्रकार श्रुत ज्ञान के विस्तार में यह गौतम गणधर चंद्र की तरह शोभित हुये थे, जिनमें संयम श्री की विशेषता है। भला ऐसा कोई और उदाहरण है जैसा इस इंद्रभूति गणधर का है। जो अभिमानवश महावीर स्वामी से वाद विवाद करने के लिये गये थे। चल देखें तेरा गुरु कौन है?मेरा गुरु महावीर है। तेरा गुरुमहावीरा हैअभिमान में आकर महावीर से बातें करने उनको नीचा दिखाने के लिये गौतम गणधर पहुँचे। भगवान महावीर के समवशरण में प्रथम भाग में बने हुये मानस्तंभ को निरखकर उनका मान चूर होता है और उसी समय बोध होता है। वहीं समवशरण में दीक्षा ले लेते हैं और मन:पर्ययज्ञान के धारी बन जाते हैं। इस प्रकार का दृष्टांत बहुत कम दृष्टांतों में कहीं मिलेगा। गौतम गणधर का इस दिगंबरी दीक्षा से पहिले भी विशाल ज्ञान था किंतु स्याद्वाद की शैली के बिना सब एकांतरूप था, अब इतनी दृष्टि के मिलने पर वह समस्त ज्ञान सम्यक् बन गया। ऐसी बुद्धि की महिमा है ना यहाँ। इस कारण ज्ञान के प्रसंग में लोग गौतम गणधर का अभिवादन करते है। गणधर का नाम गणेश भी है।
सिद्ध भगवंत की विद्यारंभ में आद्यता व गणेश का विद्याधिपत्य― पहिले समय में किसी बालक को किसी पाठशाला में पढ़ने भेजा जाता था तो सर्वप्रथम पाठ यही दिया जाता था श्री गणेशाय नम:। श्री गणेश का स्मरण करने से भी पहिले एक मंत्र लिखते थेॐ नम: सिद्धं। जिसका बिगड़कर ओना मासी धं हो गया। यह सबको पढ़ाया जाता था। पुराने लोग हों तो उनको याद होगा, ‘सी दो वन्नं समामनाया चतुरोचतुरो दासा आदि। ओना मासी धम:’‘यह पाठ पढ़ाया जाता था, यह पाठ जैन व्याकरण का सूत्र है जिसका शुद्ध उच्चारण है―ॐ नम: सिद्धं, सिद्धावर्णसमाम्नाय:। सिद्ध को नमस्कार हो। वर्णों की परंपरा स्वयंसिद्ध है। कोई लोग कहते हैं वर्ण परंपरा अमुक की डमरू में से निकली, कोई लोग कुछ कल्पना करते हैं। जैन व्याकरण सीधा स्पष्ट बता देता है कि यह वर्ण परंपरा से स्वयंसिद्ध चला आ रहा है। तत्र चतुर्दशादौ स्वरा:। आदि के 14 वर्ण स्वर कहलाते हैं इनको स्वर क्यों कहा? स्वयं राजते इति स्वर:। जो दूसरे का सहारा लिये बिना विराजें, शोभे, बोले जा सकें उनका नाम स्वर है। व्यंजनों को आप स्वर की सहायता बिना नहीं बोल सकते। जरा आधा क (क्) बोलो। कोई नहीं बोल सकता। उसमें स्वर मिलाकर बोला जायेगा। इन सब विद्यावों के अधिपति गौतम गणधर माने जाते हैं। उन इंद्रभूति स्वामी को ध्यान की सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूँ। गौतम गणधर ने, श्री गणेशजी ने शिवपति वर्द्धमान स्वामी की ध्वनि सुनकर द्वादशांग की रचना की, चतुर्वेद की रचना की, प्रथमानुयोग, करुणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग की रचना की और आप स्वयं शुद्ध ध्यान करके मोक्ष पधारे। उसही ध्यान की प्राप्ति के लिये श्री गौतम गणेश को यहाँ नमस्कार किया है।