वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 7
From जैनकोष
प्रशांतमतिगंभीरं विश्वविद्याकुलगृहम्।
भव्यकशरणं जीयाच्छ्रीमत्सर्वज्ञशासनम्।।7।।
सर्वज्ञशासन के जयवाद का उपक्रम― पूर्व 6 श्लोकों में परमात्मतत्त्व को, ऋषभदेव को, गौतम गणधर को, शांतिनाथ प्रभु को, वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके अब इस 7वेंश्लोक में श्रीमत् सर्वज्ञदेव के शासन का जयवाद करते हैं।
दु:खशमक सर्वज्ञशासन― इस असार दु:खपूर्ण लोक में भ्रमते हुए प्राणियों का यदि कुछ शरण है तो यह सर्वज्ञदेव का शासन शरण है। मोह की ज्वाला में जल रहे इस प्राणी को यदि कोई शमन कर सकने वाला जल है तो भगवान के उपदेश में कहा हुआ जो तत्त्व का मर्म है उसका हृदय में अवधारण करना, यही इस ज्वाला को शांत कर सकता है। यह लोक भ्रमवश रागद्वेष की ज्वाला में जलभुनकर अपने आपके ज्ञानानंदनिधान का घात किये जा रहा है। यह स्वयं अपने आप ही अपना विनाश कर रहा है। यद्यपि इस विकार का निमित्त परपुद्गल हैं, कर्मवर्गणा हैं, आश्रयभूत विषयों के साधन हैं और ये सब होते हुये भी वे तो निमित्त मात्र हैं, आश्रय मात्र हैं। किस पर बीत रही है और कौन बिता रहा है? इस पर दृष्टि दें तो यही आत्मा स्वयं अपने आप ही अपना विनाश करता जा रहा है।
भ्रमजाल की परेशानी― भैया ! क्लेश तो है ही, पर भ्रम का ऐसा जाल भी छाया है कि जिन साधनों से इसका विनाश हो रहा है, उन्हीं को अपनाता जा रहा है। जैसे किसी के कोई रोग है और उस रोग को ही उसका इलाज मान ले, ऐसा विकट भ्रम हो जायतो उसका इलाज क्या? एक बुढ़िया के दो बालक थे। एक को कम दिखे, पर सही दिखे। और एक को तीव्र दिखे, पर कुछ पीला दिखे। दोनों बालकों का इलाज बुढ़िया ने एक वैद्य से करवाया। वैद्य ने दोनों बालकों का एक इलाज किया। सफेद मोती भस्म दिया और कहा माँ यह दवा लो, इसे चाँदी के गिलास में गाय के दूध में मिलाकर देना, दोनों बालकों के आँखों की बीमारी ठीक हो जायेगी।बुढ़िया ने ऐसा ही किया। सबसे पहिले जो बालक कम देखता था किंतु सही देखता था उसे पीने को दिया। उसने तो उस दवा को पी डाला और जिसे तेज दिखता था पर सब कुछ पीला दिखता था, उसे जब दवा पीने को दिया तो उसने कहा, माँ हम ही तुम्हें दुश्मन मिले। क्या माँ! अरे पीतल के गिलास में गाय के मूत्र में यह हरताल डालकर मुझे पिला रही हो, उसे सब कुछ पीला दिखता था। उसने उस दवा को न पिया, तो एक की तो आँखें ठीक हो गयी, पर एक की ठीक न हुई। ऐसे ही ये संसारीजन हैं।मार्ग है कुछ और समझ रहे हैं कुछ। इसलिये उनके क्लेशों को मिटाने का सही इलाज नहीं हो पा रहा है।
आनंद का धाम― आनंद निर्विकारता में है। अपना उपयोग जब विषय और कषायों के आधीन न रहे, निर्विषय निष्कषाय अपने अंतस्तत्त्व को परख लें, उस अनुभूति में ही आनंद है। ये मोहीजन जड़ वैभवों में आसक्त हो रहे हैं, इन्हें ही अपना सर्व कुछ मान रहे हैं। सबसे निराले अपने आपके स्वरूप की इन्हें सुध नहीं होती। ऐसी विकट परिस्थिति में फँसे हुये इन जीवों को वास्तविक कोई आलंबन है तो अब यह सर्वज्ञदेव का शासन आलंबन है।
सर्वज्ञशासन की लोकव्यापकता के अभाव का कारण― समंतभद्र स्वामी ने सुक्त्यनुशासन में स्तवन करते हुये एक जगह एक प्रश्न स्वयं कर छेड़ा, किस बात पर जबकि इससे पहिले यह स्तवन कर रहे थे कि हे प्रभो ! हममें ऐसी शक्ति नहीं है कि आपके गुणों का वर्णन कर सकें, पर हाँ एक छोटी सी बात मैं जरूर कह सकता हूँ आपके संबंध में। वह क्या, हे प्रभो ! मैं जानता हूँकि तुम ज्ञान और आनंद की पराकाष्ठा हो। तुम्हारा स्तवन हम और क्या करें, इस बात पर एकाएक यह प्रश्न हो उठता है कि जब वीतराग सर्वज्ञदेव का निर्विकार स्वरूप है, और शासन सर्वहितकारी है तो यह सारी जनता इसे क्यों नहीं मानती? इस स्वरूप से विमुख होकर अपनी कल्पना से जो समझ में आया उसको ही अपना स्वरूप मान लेते हैं। वीतरागप्रभु के निर्विकार स्वरूप को सभी लोग क्यों नहीं मानते? हे प्रभो ! जब तुम्हारा शासन निर्दोष है, हितकारी है, जो माने उसका भला है, फिर इस शासन का फैलाव इस दुनिया में एकछत्र क्यों नहीं होता?
उसके उत्तर में उन्होंने कहा है―
काल: कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतु प्रवक्तुर्वचनानयो वा।
त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतु:।।
हे नाथ ! तुम्हारे शासन का एकाधिपतित्व नहीं हो सका। इसका क्या कारण है? उसके ये तीन कारण हैं― प्रथम कारण तो कलिकाल है, दूसरा कारण सुनने वालों के हृदय में मलिनता है और तीसरा कारण यह है कि कहने वालों को समझाने वालों कोनयों का अपरिज्ञान है। ये तीन कारण हैं, जिसकी वजह से आपके शासन का एकाधिपतित्व नहीं हो सका है।
सर्वज्ञशासन के अप्रसार का प्रथम कारण― भगवान के शासन के प्रसार के अवरोधक कारणों का मतलब सुनिये। प्रथम कारण तो कलिकाल है। कलिकाल के संबंध में एक कथानक है कि जिस दिन कलिकाल लगना था, उससे एक दिन पहिले एक पुरुष ने अपना मकान बेचा। जिसने खरीदा था, उसने नींव खोदी तो नीचे उसमें अशर्फियों का भरा हंडा मिला। वह बेचने वाले के पास पहुँचा और कहा कि आपने जो घर बेचा है, उसके खोदने पर यह अशर्फियों का हंडा मिला है, इसे आप ले लो। उसने कहा कि मैं क्यों इन्हें लूँ? ये मेरे नहीं हैं। यदि ये अशर्फियाँमेरी होती तो मुझे पहिले क्यों न मिलती?खरीदने वाले ने कहा कि हमने तो सिर्फ जमीन खरीदी है, ये अशर्फियाँमेरी नहीं हैं।दोनों में झगड़ा हुआ तो न्याय राजा के पास पहुँचा। खरीदने वाले ने बताया कि ये अशर्फियाँ हमने इनसे जो घर खरीदा है, उसकी नींव खोदने में निकली हैं। ये मेरी नहीं हैं। मैं न लूँगा। सो राजा ने कहा कि अच्छा ! इसका निर्णय कल कर देंगे। अब कलिकाल की रात लगी। सभी अपने-अपने घर में सोचते हैं। खरीदने वाले ने सोचा कि मैं क्यों दूँ, पाया तो मैंने? बेचने वाले ने सोचा कि मैं कैसा मूर्ख निकला कि वह हंडा देने आया और मैंने न लिया, अब कल हमीं ले लेंगे। राजा ने सोचा कि मैं व्यर्थ में क्यों परेशान होऊँ न्याय करने में? मैं तो कह दूँगा कि यह धन तुम्हारा नहीं है, यह तो राज्य का है। लो यह एक कलियुग की बात बतायी है। हुआ क्या? सो हमें क्या पता? इस प्रकार कलिकाल के दोष की बातें आजकल भी देख लो। लोग दुराचरण से कितने परेशान हैं?झूठ, धोखा, विश्वासघात और अनेक तरह के अन्य दुराचार, हिंसा का इतना प्रचार कितनी ही बातें हो रही हैं, यह सब कलिकाल का प्रभाव है। प्रभु के शासन का जो एकाधिपतित्व नहीं हो सका उसका कारण एक तो कलिकाल है।
सर्वज्ञशासन के अप्रसार का द्वितीय व तृतीय कारण―अब सर्वज्ञशासन का अवरोधक द्वितीय कारण सुनिये― सुनने वाले भी कलुषित आशय के हैं। उनका मन धर्म की चर्चावों में नहीं लगता, वे अपने मन के अनुकूल उपदेश सुनना चाहते हैं। दुसरी बात सुनने वाले प्राय: इस ताक में भी रहते हैं कि कहने की पद्धति में या किसी कथन में कोई दोष मिले तो उसे बताऊँ ताकि दुनिया समझे कि हाँ ये भी कुछ हैं, मेरा जिससे प्रताप फैले। इस प्रकार का दोष श्रोतावों में है। जिससे उनका कुछ हितभाव से ज्ञान की बातें सुनने में मन नहीं लगता। सर्वज्ञशासन के अवरोध का तीसरा कारण है वक्ताओं को नय का परिज्ञान नहीं है। उनको बोलने की कुछ पद्धति भी विदित नहीं है कि कैसे बोलें? उन्हें बोलने का ढंग ही नहीं आता। नयों का कुछ पता ही नहीं है। न जाने उनकी कैसी दृष्टि है, कैसी स्थिति है? तो हे नाथ ! ये तीन कारण हैं जिससे आपके शासन का एकाधिपतित्व नहीं हो सका।
प्रसार समीचीनता का अहेतु― लोग इस शासन का अनुकरण नहीं करते तो क्या हुआ? पत्थरों के ढेर तो लाखों मिलेंगे, पर रत्नों के ढेर बहुत कम मिलेंगे। कोई किसी को मानने वाले अधिक हैं तो क्या इससे उसकी समीचीनता जानी जाती है? यदि लोक में मोह को मानने वाले अनंतानंत हैं तो फिर मोह अच्छा हुआ और सम्यक्चारित्र के मानने वाले बिरले हैं, अंगुलि पर गिनने लायक हैं तो वह अच्छा नहीं हुआ। ऐसी बात है क्या? अरे, इन विकल्पों में क्या सार है?पहिचान कर लो, खूब परख लो और निर्णय कर लो। जो जैसी बात है, उसे वैसी मानने में क्यों विलंब करते हो?यह तो आपके उपयोग की बात है।
सर्वज्ञशासन की भव्यैकशरणता―यह सर्वज्ञदेव का शासन भव्य जीवों के लिये एक शरण है। यह सारा जगत् मोह से परेशान है और वह मोह भी व्यर्थ का। न कुछ उसमें से आत्मा में आता है, न उससे कुछ पूरा पड़ता है। मोह को मिटाने के लिये सम्यग्ज्ञान का प्रकाश ही समर्थ है। मोह का घनांधकार इस ज्ञानप्रकाश से मिटता है। जिसके शासन में वस्तुस्वरूप का निष्पक्ष प्रतिपादन किया गया, जिसमें देव और गुरु की मान्यता में भी पक्ष नहीं रक्खा गया, जो निर्दोष हो और पूर्ण गुण संपन्न हो वही हमारा देव है। जो निर्दोषता के यत्न में लग रहे हों, जिनमें गुण विकास भी चल रहा हो, वे हमारे गुरु हैं। जिसमें निश्चयव्यवहार सब निष्पक्ष कथन है, वह प्रकाश हमारे मोह को दूर कर देता है? अपने जीवन में भी अंदाज कर लो कि सुख पर के समागम में मिलता है या विरक्ति में मिलता है? जिस किसी भी समय आप उदासीन बैठे हुए हैं अर्थात् सर्वपर की उपेक्षा किये हुये एक ज्ञानदृष्टि में लग रहे हों, उस समय के आनंद की, निराकुलता की परख कर लीजिये और जब परिजनों के समागम में रहकर मौज माना जा रहा है, उस स्थिति की परख कर लीजिये। वह विशुद्ध आनंद कहाँ है?
सर्वज्ञशासन की शरणता का कारण― जिस शासन में वस्तुस्वरूप के अवगम के मार्ग से चलकर जहाँ मूल से मोह के विध्वंस करने का यत्न कराया गया, प्रत्येक पदार्थ अपने आपमें परिपूर्ण है, यह मैं भी अपने स्वरूप में परिपूर्ण हूँ, मेरा जो कुछ बनता है, वह मेरे में मुझसे ही बना करता है, किसी का किसी पदार्थ में कुछ करने का वश नहीं चलता, कुछ अधिकार भी नहीं है। वह वही है, मैं अपने में हूँ, जब ऐसी वस्तुस्वरूप की दृष्टि बनती है, इस वस्तुस्वरूप के अवगम के प्रताप से तब वहाँ मोह नहीं रहता है।
भेदज्ञान में मोहहारिता का दृष्टांत― कोई दो पड़ौसी थे। उन दोनों ने अपनी-अपनी चादर एक धोबी के यहाँधोने को डाल दी। धुल जाने पर एक पड़ौसी अपनी चादर बदले में दूसरे पड़ौसी की ले आया और घर में उस चादर को तानकर सो गया। दूसरा पड़ौसी जब अपनी चादर लेने उस धोबी के यहाँ गया तो देखा कि यह तो मेरी चादर नहीं है। धोबी ने बताया कि तुम्हारी चादर बदलकर अमुक पड़ौसी के यहाँ चली गयी है। सो आप इस चादर को ले जाइये, उसे दे देना और अपनी चादर ले लेना या वह अपनी चादर यहाँ से ले जाये और तुम अपनी चादर उससे ले लेना।वह पड़ौसी गया उसके पास, वहाँ देखा कि वह उसी चादर को ताने सो रहा है। उसे जगाया और कहा कि यह चादर जो तुम ओढ़े हों, मेरी है, मेरी चादर तुम्हारी चादर से बदल गई है। इतनी बात सुनकर उस चादर को वह गंभीरता से देखने लगा। उसे जब अपनी चादर के चिह्न उसमें न दिखे तो समझ गया कि हाँ यह मेरी चादर नहीं है। बस उसका जो भ्रम था कि यह मेरी चादर है वह भ्रम मिट गया। इस प्रकाश को अब कौन मिटा सकता है? जो एक बार यह समझ बैठ गई कि यह चादर मेरी नहीं है। इसमें तो मेरी चादर के चिह्न भी नहीं हैं,यह ज्ञान हो जाने पर उसमें उसकी आसक्ति नहीं रही, लेकिन संभव हे कि यदि राग भी हट गया है तो जितनी देर वह चादर उसके तन पर है, उतनी देर भी उसका उस चादर में राग नहीं उत्पन्न होता, चाहे अभी चादर उतारने में कुछ देर लगेगी। अथवा वह चाहता हो कि मेरी चादर पहिले मिल जाये, तब मैं इसे दूँगा।यह जानते हुए भी कि यह चादर मेरी नहीं है, फिर भी परिस्थिति ऐसी बना ली अपनी कल्पना में कि वह विवाद कर रहा है। भले ही विवाद करे, किंतु अब उसको भ्रम तो नहीं रहा। भ्रम मिटते ही भीतर में उसके चादर का त्याग हो गया। अब इस अंत:करण को कौन मेट सकता है?
भेदविज्ञान में मोहविनाशकता― ऐसे ही जब अपने स्वरूप का पता नहीं है, तब पर पदार्थ से सुख और हित मानने का भ्रम लगा है और ये ही मेरे हितकारी हैं, ये ही मेरे सब कुछ हैं, यह भ्रम पड़ा है। आचार्यगुरु बारबार समझाते हैं कि ये बाह्यसमागम, तन, मन, धन, वचन― ये तेरे नहीं हैं तू इनको परख। तेरा स्वरूप तो एक चैतन्यमात्र है, उसे निरख, इनको छोड। क्यों इनको व्यर्थ ग्रहण किये हैं? ये समस्त बाह्यसमागम असार हैं, भिन्न हैं, रूप, रस, गंध, स्पर्श के पिंड हैं, सदा रहने वाले नहीं हैं। इतनी बात जिसकी समझ में आ गयी, उसके इस भीतरी प्रकाश को कौन मेट सकता है? ऐसी भीतर में जो ज्योति जगती है, वही शांति का मार्ग है और यह मार्ग सर्वज्ञ के शासन से हमें प्राप्त होता है। तब ये सर्वज्ञदेव एक शरणभूत हुये ना? इस सर्वज्ञशासन में आदि से अंत तक शांति का उपदेश भरा हुआ है। किसी परिस्थिति में कोई पुरुष किसी से विवाद भी करे, युद्ध भी करे, विरोध भी करे, प्रत्याक्रमण भी करे, फिर भी यदि वह ज्ञानी है तो उसका झुकाव अपनी आत्मशांति की ओरहोता है, विवाद की ओरनहीं होता है।
सर्वज्ञ शासन में शांति की प्रधानता― जिस शासन में आदि से अंत तक एक शांति का उपदेश दिया गया है― ऐसा सर्वज्ञशासन जयवंत होवो, परंपरा इसकी चलती रहे। इस सर्वज्ञशासन से लाभ लूट लो। यदि इसका सचमुच में लाभ लूटना हैतो यह भावना प्रथम होगी कि यह परिपाटी आगे भी चलती रहे। दूसरे लोग भी लाभ से क्यों वंचित हों? यह शासन प्रशांत और अतिगंभीर है। देखो ये जैनशासन के पर्व कितने धैर्य और शांति को प्रसारित करने वाले हैं, सर्वत्र जिसमें अहिंसा का ही विस्तार है। दस लाक्षणी का पर्व आ गया तो क्षमा, सरलता, नम्रता इत्यादि का गुणानुवाद होगा, इनकी ओरदृष्टि जगेगी। अनशन और व्रत इत्यादि अनेक प्रकार के सदाचार धारण किये जायेंगे। तो जहाँ पर इस प्रकार के शांति का प्रसार करने वाले उपदेश भरे हैं।
विश्वविद्याधाम सर्वज्ञशासन का जयवाद― सर्वज्ञशासन को समस्त विद्याओं का घर कहा है। आध्यात्मिकज्ञान लो, करणानुयोग का ज्ञान लो, विज्ञान लो, अविष्कारक के मूलमंत्र लो, ज्योतिष आयुर्वेद इत्यादि ये सभी की सभी विद्यायें इस सर्वज्ञशासन से मिलती हैं। ऐसी कोई विद्या नहीं है, जो सर्वज्ञशासन में न हो अथवा यह सर्वज्ञशासन सर्वविद्याओं का घर है। द्वादशांग का कितना विस्तार है, इसको समझने वाले स्पष्ट जानते हैं। जो भव्य जीवों को एक शरणभूत हैं― ऐसा श्रीमत् सर्वज्ञदेव का यह शासन चिरकाल तक जयवंत रहे। इस प्रकार शुभचंद्राचार्य इस सर्वज्ञशासन का गुणानुवाद कर रहे हैं।