वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 78
From जैनकोष
वर्द्धयंति स्वघाताय ते नूनं विषपादपम्।
नरत्वेपि न कुर्वंति ये विवेच्यात्मनो हितम्।।78।।
स्वघातवृत्ति― जो मनुष्य इस नरदेह को पाकर भी भेदविज्ञान नहीं करते, विवेक विचार नहीं बनाते, आत्मा का हित नहीं करते वे पुरुष अपने ही घात के लिये विषवृक्ष को बढ़ाते हैं। पापकार्य सब विषवृक्ष की तरह हैं। जैसे विषवृक्ष का फल प्राणियों को मारने वाला होता है इसी प्रकार इस पापकार्य का फल जीव का, प्राणियों का हनन करने वाला होता है। विविध देहों में भटका कर संसार के क्लेशों को देने का कारण होता है। जब बुरे दिन आते है तो अपना ही वैभव अपने घात के लिये हो जाता है। उदय प्रतिकूल हो तो वही वैभव प्राणनाश का कारण बन जाता है। कोई लोग तो डाकुओं के द्वारा सताये जाते हैं और घात किये जाते हैं, कितने ही रागीजन अपनी ही कल्पनाओं से अपने दिल को कमजोर बनाकर हार्टरोग के रोगी हो जाते हैं और उनका हार्ट फेल हो जाता है, गुजर जाते हैं। जब प्रतिकूल समय होता है तो वह प्राप्त समागम भी इस जीव के घात का कारण बनता है।
पापविरत होने का शिक्षण― समस्त पापकार्य विषवृक्ष के समान हैं, उनके ही फल में ये अनेक उपद्रव भोगने पडते हैं। क्या विश्लेषण किया जाय, पाप किया और उसका फल तुरंत भोगना पड़ता है। कोई जाने अथवा न जाने, पापकार्य के समय जो क्षोभ होता है, कायरता जगती है, कल्पनाएँ बढ़ती हैं उन खोटी वृत्तियों में तो तुरंत ही संक्लेश सहना पड़ता है, पाप का फल इस जीव को तुरंत मिल जाता है। फिर जो कर्म बंधा पाप का और उसके उदय में कालांतर में फल मिला वह तो उसका एक प्रकार से वृद्धिरूप समझिये अर्थात् ब्याज समझिये। तुरंत भी दु:खी हो और भविष्यकाल में भी दु:खी होना पड़ता है। अतएव हे कल्याण के इच्छुक पुरुष ! तू अपना घात अपनी प्रवृत्ति से मत कर। एक शुद्ध निज-स्वरूप की दृष्टि कर। तेरा मात्र तू ही है, तू अकिंचन् है, तेरा स्वरूप प्रभु-स्वरूप की तरह ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण है। अपने स्वरूप को संभाल इस सावधानी से सांसारिक कष्टों के सहने की सामर्थ्य प्रकट होगी और उन कष्टों के समय निज स्वरूप की दृष्टि से विचलित न होगा तो मुझे मोक्षमार्ग मिलेगा, अपूर्व आनंद होगा, निकट काल में ही समस्त संकटों से छुटकारा पा लेगा। तू अपने ही घात के लिये विषवृक्ष की वृद्धि न कर। भेदविज्ञान करके अपने स्वरूप को लक्ष्य में लेकर अपने हित को किये जा।