वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 77
From जैनकोष
अनेन नृशरीरेण यल्लोकद्वयशुद्धिदम्।
विवेच्य तदनुष्ठेयं हेयं कर्म ततोऽन्यथा।।77।।
पावन कर्म की अनुष्ठेयता― इस प्राणी को चाहिए कि इस मनुष्य-देह से ऐसा काम करे जो इस लोक में और परलोक में शुद्धता प्रदान करे और शांति प्रदान करे। शुद्ध और शांत कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्य तो हेय हैं। आत्मकल्याण की बात चित्त में समाना और आत्मकल्याण के ढंग से अपने आपको प्रवर्ताना, यह दृष्टि आ जाय तो आत्मकल्याण सुगम है अन्यथा बहुत कठिन बात है। विषयकषायों के रंग में चिरकाल से रंगा हुआ पुरुष विषयों की ओर ही झुकता है। इसे विषय और कषायों में ही सुख प्रतीत होता है।
आहार में पाशविक वृत्ति― अहो ! ऐसे दुर्लभ मानवशरीर को पाकर यह बेचारा कर्मप्रेरित प्राणी क्या करे? इसकी जिंदगी तो पशुवों के समान विषयों में लगी पगी चली जा रही है और ये मनुष्य पशुवों से भी निम्न श्रेणी की वृत्ति को अपनाए हुए हैं। कोई पशु हिंसा करे अपना पेट भरने के लिए तो दो चार जीवों को मार लेगा, पर यह नरपशु एक अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए दुनिया में मायावीजनों से अपने को एक खासा कहलवाने के लिए मात्र हजारों और लाखों मनुष्यों का विध्वंस करा देता है, यह जिंदगी पशुवों से भी निम्न श्रेणी की है ना? पशुजन तो पेट भर जाने पर आहार भी नहीं किया करते, कुछ भी संतोष के योग्य उनका उदर भरा हो तो बहुत बढ़िया घास आदिक जो उनका भोजन है सामने भी रखा हो तो उसकी ओर दृष्टि भी नहीं देते हैं, किंतु इस मनुष्य की तृष्णा विलक्षण है। भर पेट भोजन किया है फिर भी यदि कोई रसीली चीज, चाट चटपटी की चीज सामने आ जाय तो कुछ न कुछ खा लेने की जगह निकल ही आती है। पशु, पक्षी प्राय: रात्रि को नहीं खाते, कोई बिरला ही अत्यंत भूखा हो तो वह खा लेता हो तो हमें पता नहीं, पर देखा नहीं गया, किंतु इस मनुष्य को न रात, न दिन जब चाहें, जैसा चाहे भोजन बना हुआ है उसे खा लेते हैं।
भय व मैथुन में पाशविक वृत्ति― पशु, पक्षी भय तभी मानते हैं जब उन पर कोई डंडा उठाकर आये, लेकिन यह मनुष्य गद्दा, तक्की पर बैठा है, बड़े शीतल कमरे में है, कोई नौकर है, सब कुछ ठाट हैं लेकिन ऐसी जगह बैठा हुआ भी इतना भयशील है कि उसका चित्त ठिकाने भी नहीं है। क्या-क्या कल्पनाएँ करता है, क्या-क्या शंकाएँ बनाता है? उनको विशेष क्या खोलना, सबको कुछ न कुछ उन कल्पनावों के बारे में परिचय है। ये पशु तो किसी नियतकाल में मैथुन वृत्ति में प्रवृत्त होते हैं किंतु मनुष्य के लिए कोई काल नीयत है क्या? ऐसी एक बात नहीं, मुकाबला करके देख लो तो यह धर्महीन मनुष्य पशुवों से भी अधिक निम्न श्रेणी का पुरुष है।
दुर्लभ नरदेह को व्यर्थ न गँवाने का अनुरोध― ऐसे दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर हे प्राणी ! तूने व्यर्थ खो दिया। कितना अमूल्य हीरा, रत्न पाकर कौवों को उड़ाने के लिए फैंक देता है, समुद्र में गिर जाता है, ऐसे ही इस मनुष्य शरीर रत्न को एक रौद्रध्यान के लिए, एक विषयभक्षण के आनंद के लिये तूने यों ही गँवा दिया। अब तू ऐसा ही कार्य कर जो इस लोक में भी शुद्ध शांति प्रदान करे और परलोक में भी शुद्ध शांति प्रदान करे।