वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 804
From जैनकोष
तन्न लोके परं धाम न तत्कल्याणमग्रिमं।
यद्योगिपदराजीवसंश्रितैर्नाधिगम्यते।।
योगिचरणकमलाश्रय से सर्वश्रेय का उपलंभ- योगीश्वरों के चरणकमलों की सेवा करने वाले को सर्वस्व कल्याण प्राप्त होता है, ऐसा कोई उत्कृष्ट स्थान नहीं है, धाम नहीं है जो योगीश्वरों की भक्ति से प्राप्त न हो। कोई ऐसा कल्याण नहीं है जो योगीश्वरों की सेवा करने वाले को प्राप्त न हो। योगीश्वरों का भाव क्या है? जो योग साधे और योगियों में जो प्रधान हो उसे कहते हैं योगीश्वर। योग का अर्थ है जोड़ना। जैसे लोकव्यवहार में भी कहते कि 7 और 7 इनका योग करिये जरा। तो योग का अर्थ है जोड़ना। इसी प्रकार सिद्धांतों में एक आध्यात्मिक उन्नति के प्रसंग में जो योग शब्द आता है, उसका अर्थ है जोड़ना। अपने ज्ञान को, उपयोग को अपने ज्ञानस्वरूप में जोड़ना इसका नाम है योग, और ऐसा योग जो करते हैं उन्हें योगी कहते हैं। उन योगियों के चरण कमल की सेवा जो करते हैं उन्हें समस्त प्रकार के कल्याण की प्राप्ति होती है। सर्वप्रथम तो सेवा करने वाला भी बड़ा योग्य होना चाहिए, नहीं तो दो चार घंटे में ही भाग जायगा। जिसके पास न धन है, न कुछ लौकिक अधिकार हैं, परिमित तत्त्व या और कुछ तत्त्व जो स्वयं दूसरे की शुद्ध वृत्ति से प्रेरणा करते हैं उनसे कुछ मिलेगा नहीं तो वह उनका साथ छोड़कर भाग जायगा। जो योग्य पुरुष हो वही उनके संग में रह सकता है, जिसे स्वयं अध्यात्मरस की चाह है और जिसने योगियों के सब गुण देखे हों तो उन गुणों से आकर्षित होकर उनकी सेवा में वह रह सकता है तो जो योगीश्वरों की सेवा कर रहा है वह अपने आपको भी योग्य बना रहा है और अपने आपमें अपने योग को बनाये इससे समस्त कल्याण की प्राप्ति होती है। मतलब यह है कि अपने लिए जो बाहरी पदार्थों में उपयोग बनाता है, झुकाव करता है; घर, वैभव, परिजन, पोजीशन, नेतागिरी आदि में अपना मन लगाता है वह तो है बाहरी चीजों में जुड़ना और उन बाहरी चीजों में न जुड़कर अपने आपके अंतरंग में निज ज्ञायकस्वरूप में अपने मन को लगाना, विकल्प हटाना और अपने ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप में अपने ज्ञान का जोड़ना इसका नाम है अंतर्योग। तो जो ऐसा अपने भीतर अपना झुकाव करते हैं उन पुरुषों को समस्त कल्याण प्राप्त होते हैं और जो केवल बाहरी-बाहरी पदार्थों की ओर अपना झुकाव रखेंगे उनका संसार में रुलना ही बना रहेगा।
कल्याणलाभ के लिये अंतस्तत्त्व की जानकारी का कर्तव्य- हम आप सब जीव हैं और सबमें ज्ञान का स्वभाव पड़ा है और सभी जीव सच जानने की इच्छा रखते हैं। कोई यह नहीं चाहता कि मेरी झूठी जानकारी बनी रहे। बस अपन को यही करना है कि वास्तव में मुझे अपने सत्यतत्त्व की जानकारी बनी रहे। इस सच्ची जानकारी से ही समस्त संकट दूर होते हैं, क्योंकि जिन्होंने इस सच्चे ज्ञान को समझ लिया कि प्रत्येक पदार्थ जुदा है, अपना-अपना स्वरूप रखते हैं, मैं अपना स्वरूप रखता हूँ, मैं ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, मुझमें किसी पर से कुछ आता जाता नहीं है, मैं अपने आप ही सुखी हूँ, ऐसा जिसे बोध हो गया वह जब चाहे कदाचित् कुछ खराबी भी अपने चित्त में हो तो जब चाहे अपने आपमें आ सकते हैं और सुखी हो सकते हैं। जैसे यमुना नदी में बहुत से कछुवे होते है, वे अपना सिर उठाये यत्र-तत्र घूमा करते हैं। सैकड़ों पक्षी उस कछुवे की चोंच को पकड़ने के लिए उस पर झपटते हैं, वह कछुवा घबड़ाकर यत्र-तत्र भागता है। अरे कछुवे तू क्यों दु:खी हो रहा है? तेरे पास तो ऐसी कला है कि जब चाहे तब अपने संकट मेट ले। पानी में चार अंगुल अपनी चोंच भर डुबा लेना है, लो सारे संकट समाप्त हो गए। ऐसे ही हम आप अपने उपयोग की चोंच को बाहर में निकाले हुए हैं जिससे अनेक आपत्तियाँ हैं। अरे हम आपमें ऐसी कला है कि जब चाहे तब इन सारे संकटों को मेट लें। एक इस उपयोग चोंच को बाहर से हटाकर अपने आपमें अंतर्मुखभर कर लेना है, लो सारे संकट शीघ्र ही दूर हो जाते हैं। देखो जैसे- कोई मुर्दा पड़ा हो, उसके सिर न हो, मात्र धड़ हो तो उसे कोई पहिचान नहीं पाता, और धड़ साथ सिर भी लगा है तो शीघ्र पहिचान हो जाती है, इसी तरह आत्मा यदि अपने उपयोग को अपने में लगाये तो इसे अपने आत्मा की शीघ्र पहिचान हो जाती है। और, इसी कारण उपयोगो लक्षण कहा। ज्ञान ही जीव का लक्षण है। तो हम अपना ज्ञाननेत्र उपयोगनेत्र ज्ञानसमुद्र से बाहर निकाले हैं तो पचासों संकटरूपी पक्षी हम आप पर मंडरा जाते हैं। लोग कहते मुझ पर बड़ा संकट है। अरे क्या संकट है? मूल में यही बात मिलेगी कि किसी परपदार्थ में अपनी दृष्टि गड़ा रक्खी है, इसी कारण मन के अनुकूल बाहर में प्रवृत्ति न देखकर लोग दु:खी रहते हैं। अरे स्वयं में क्या दु:ख है? बाह्यपदार्थों के कारण केवल कल्पना से ही तो दु:खी हैं, स्वयं में अपनी ओर से कोई दु:ख नहीं है। तो यह जो हमने ज्ञान उपयोग की चोंच बाहर में निकाली है, संकट सता रहे हैं, कल्पनाएँ करके हम दु:खी हो रहे हैं तो वे समस्त संकट एक साथ दूर हो जायें ऐसी कला हम आपमें मौजूद हैं। प्रयोग करें उस कला का तो संकट दूर हो सकते हैं। प्रयोग यह करें कि जब बहुत हम अशांत हो गये, बड़े संकट सता रहे तो उस ज्ञान कला का ऐसा प्रयोग करना कि कुछ क्षण तो हम विश्राम कर लें, सर्व पर को भूल जायें, लो सारे संकट एक साथ समाप्त हो गए।
अध्यात्मयोग के यत्न से संकटों का परिहार- भैया ! बाहर में किस किस क्लेश को दूर करने का उपाय करें? एक दु:ख दूर करते हैं तो दूसरा दु:ख सामने आ जाता है। एक इस ज्ञानकला का उपयोग कर लें तो फिर कोई अशांति न रहेगी। इस जीवन में कितने ही झमेले लगे रहते हैं जिनके कारण ये संसार के प्राणी आकुलित रहा करते हैं, कभी भी अपने सत्य विश्राम को नहीं प्राप्त कर पाते हैं। तो कुछ क्षण के लिए तो अपने उस सत्य विश्राम को प्राप्त करें। उसका उपाय क्या है कि एक साथ ही समस्त परपदार्थ संबंधी उपयोग को हटाकर विश्राम से ठहर तो जायें, अपने ज्ञानसमुद्र में अपनी उपयोग चोंच को डुबा तो लें कि सारे संकट एक साथ समाप्त हो जाते हैं। देखिये ये सब बातें अपने भले की हैं, एक यह अध्यात्म प्रयोग है, चाहे महीने में एक बार कर सकें, चाहे रोज एक बार कर सकें, कभी भी बन जाय, सर्व पर को भूलकर, किसी को भी अपने ज्ञान में न लेकर बड़ी स्थिरता से विश्राम से यों ही बैठ जायें कि अपने आप आपमें जो कुछ झलके सो झलके, पर हम जान जानकर किसी भी पदार्थ को सोचना न चाहें। ऐसा एक ठोस कदम जरा अपना बढायें तो सही किसी भी समय किसी भी क्षण तो सच जानो कि यह एक ऐसा महान पुरुषार्थ होगा कि समस्त वैभव, समस्त कल्याण आपने प्राप्त कर लिए। इतनी बात यदि जीवन में न कर सके तो पुद्गलों के ढेर से होता क्या है। हजारों, लाखों, करोड़ों का धन इकट्ठा हो जाय आखिर वे चीजें तो बाहरी हैं। उसके कारण यदि कुछ जीवों ने थोड़ी प्रशंसा कर दिया कि यह तो बड़े आदमी है तो इससे इस आत्मा ने क्या लाभ पाया? अरे उन परपदार्थों से कुछ भी लाभ न होगा। अपना ध्येय तो ऐसा बनायें कि मुझे तो केवल अपनी थाह लेना है। मैं क्या हूँ- उसमें रमना है, और ऐसा करने में जो कुछ हम पर बीतती हो वह मेरे लिए भली बात है। पराधीन रहकर, दूसरे की दृष्टि रखकर, वैभव की आशा रखकर कुछ भी स्थितियाँ गुजरें वे सब हितकारिणी स्थितियाँ हैं। अपने आप अपने में ठहरकर फिर जो मुझे प्राप्त हो वह मुझे सब कुछ है, और अपने से अलग रहकर बाहर दृष्टि रखकर जो कुछ भी चीजें प्राप्त होती हैं वे मेरे लिए कुछ भी नहीं हैं ऐसा अपना निर्णय बनायें और मूल लक्ष्य अपना यह रखें कि मुझे तो आत्मज्ञान करना है और आत्मा में ही अपने को ठहराकर प्रसन्न रहें। कोई प्रयत्न बनाता है यही है अध्यात्मयोग। ऐसा योग करने वाले संत पुरुषों के चरणों की जो सेवा करते हैं उन पुरुषों के समस्त प्रकार के कल्याण की प्राप्ति होती है।