वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 805
From जैनकोष
अंतर्लीनमपि ध्वांतमनादिप्रभवं नृणाम्।
क्षीयते साधुसंसर्गप्रदीपप्रसराहतम्।।
साधुसंगसेवा से अंतर्लीनध्वांत का भी प्रक्षय- साधुजनों के सत्संगरूपी प्रदीप से आवृत्त होकर अनादिकाल का अज्ञान अंधकार भी नष्ट हो जाता है। यह जीव अनादिकाल से अज्ञानी चला आ रहा है। यदि यह जीव पहिले शुद्ध होता, निर्मल होता तो इसमें विकार और अज्ञान किसी भी प्रकार न आ सकता था। जैसे खान में स्वर्ण शुरू से ही अशुद्ध है, पहिले से ही मिट्टीरूप है। बाद में लोग उपाय करके भट्टी से, धौकनियों से उसे शुद्ध करते हैं और उससे शुद्ध स्वर्ण प्रकट होता है किंतु वह शुरू से अशुद्ध ही था। इस ही प्रकार जगत के ये सब जीव अनादि से अशुद्ध ही हैं। विवेक तपश्चरण आदि उपायों से यह जीव शुद्ध बनता है। तो यों अनादिकाल से इस जीव पर अंतरंग से लीन अज्ञान अंधकार चला आ रहा है, ऐसा विकट अज्ञान अंधकार भी साधुजनों के संसर्ग के प्रदीप के प्रकाश से नष्ट हो जाता है। अज्ञान क्या है? मोह। और निर्मोह साधुवों को जब देखते हैं, उनका ज्ञान, उनका चमत्कार जब हम विदित करते हैं तो एकदम अपने ज्ञाननेत्र खुलते हैं और मोह दूर हो जाता है। मनुष्य का जीवन सुधरता है बड़ों के सत्संग से। एक तो यह जीव स्वयं व्यसनों की ओर लगा है और फिर मिले इसे व्यसनों की ही संगति तो व्यसन छूटने का क्या उपाय है? एक तो यह जीव विषयों की ओर ही लगा हुआ है और फिर विषयों की मिले संगति तो ये विषय कैसे छूट सकते हैं? सत्संग बिना दिमाग भी व्यवस्थित नहीं रह सकता।
धर्म के प्रसंग बिना जीवन में नि:सारता का अनुभव- धर्म की कुछ पुट रहे बिना जीवन एक भार सा मालूम होता है। कोई अवसर काज भी धर्म की पुट बिना भद्दे मालूम होते हैं, जैसे कोई विवाह का ही कार्य है। विवाह की प्रक्रिया में धर्म की कोर्इ पुट न रहे, जैसे कि मंदिर जाना, कुछ दान करना आदि जो भी कुछ धार्मिक प्रसंग होते हैं, ये न होते तो वह समारोह नीरस हो जाता। मनुष्य के जीवन में यदि धार्मिक बात न हो तो वह जीवन फिर दूभर हो जाता है। कैसा भी कोई प्राणी हो, किस ही प्रकार का मनुष्य हो, गरीब हो अथवा धनिक, कोई भी मनुष्य निरंतर अधर्म अधर्म में ही रहे, अपेक्षाकृत धर्म की कुछ भी बात मन में न आये। किसी भी ढंग से तो उसका जीवन दूभर हो जाता है। कितना ही पापी पुरुष हो, कितना ही व्यसनासक्त हो, उसके भी जीवन में किसी न किसी क्षण योग्यता के माफिक अपेक्षाकृत धर्म की कोई चर्चा मन में आती ही है। तो जैसे धार्मिक वातावरण मिले बिना यह जीवन दूभर हो जाता है। ऐसे ही सत्संग मिले बिना यह जीवन दूभर हो जाता है। खोटी संगति ही अहर्निश मिलती रहे तो जीवन दूभर हो जाता है- सत्संग मन को एक बड़ा विश्राम कराने वाला है तो साधुसंतों की संगति से अज्ञान अंधकार नहीं रहता।