वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 816
From जैनकोष
दश ग्रंथा मता बाह्या अंतरंगाश्चतुर्दश।
तान्मुक्तवा भव नि:संगो भावशुद्धया भृशं मुने।।
परिग्रह के चौबीस भेद- हे मुनि ! अपने परिणामों की निर्मलता से तू नि:संग बन और 10 प्रकार के बाह्य परिग्रह और 14 प्रकार के अंतरंग परिग्रह इनको दूर कर। इन दोनों प्रकार के परिग्रहों में बलवान तो अंतरंग परिग्रह है इस जीव को सताने वाला यह अंतरंग परिग्रह है। अंतरंग परिग्रह बाह्यपदार्थों के संसर्ग से बनता है। कौनसे वे 10 बाह्य और 14 अंतरंग परिग्रह हैं, इसका विवरण भेद के रूप में कर रहे हैं।